पशुओं में पटेरा रोग: बचाव एवं रोकथाम

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पशुओं में पटेरा रोग: बचाव एवं रोकथाम

यह रोग गोलकृमि परजीवी टोक्सेकेरा वाईटूलोरम से होता है, जो भैंस, गाय (कभी-कभी भेड़-बकरियों में) की छोटी आंत में निवास करता है। यह रोग भैंस के बच्चों में अधिक होता है। इस परजीवी का संक्रमण बछड़े जन्म से पूर्व अपनी माँ के गर्भ से या जन्म के बाद दुग्ध से ग्रहण कर लेते हैं तथा जन्म के 10-14 दिन बाद से लेकर 4-6 माह तक की आयु वाले कटड़ों में यह रोग उत्पन्न होता है। समस्त परजीवी रोगों में इस परजीवी से कटड़ों में सबसे अधिक मृत्यु होती है।

रोग का प्रसारण:
यह रोग परजीवी के अंडे (परजीवी के द्वितीय लार्वा अवस्था से भरा हुआ) से दूषित चारे या पानी को पशु द्वारा ग्रहण करने से होता है। पशु की आंत में पहुँचकर परजीवी अपनी द्वितीय लार्वल अवस्था अंडे से बाहर निकल कर शरीर के विभिन्न अंगों में विस्थापित होते हैं और विलुप्त अवस्था में छिप जाते हैं। जब मादा पशु गर्भवती होती है तो यह लार्वा पलायन करके या तो भू्रण में चले जाते हैं या फिर स्तन ग्रंथियों में पहुँच जाते हैं, ऐसा 7-8 माह की गर्भावस्था में होता है। कटड़े के जन्म के बाद दूध के साथ लार्वा आंत में पहुँच जाते हैं और 3-4 सप्ताह में यह लार्वा वयस्क में बदल जाते हैं तथा रोग उत्पन्न करते हैं।

रोगाजनकता:

कम संक्रमण से कटड़ों में ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु भारी संक्रमण (70-700 परजीवी/कटड़ा) से भारी नुकसान होता है एवं उनकी मृत्यु भी हो सकती है यह परजीवी पशु की आंत में निवास करते हैं और आंत की दीवार पर घाव का छिद्र करते हैं जिससे पाचन विकार उत्पन्न होकर पशु का स्वास्थ्य गिरने लगता है। कभी-कभी ये परजीवी झुण्ड के रूप में एकत्रित होकर आंत में अवरोध उत्पन्न करते हैं। इसके अलावा पशु के भू्रण अवस्था में परजीवी के लार्वा विभिन्न अंगों में पलायन के कारण कई अंगों को गंभीर रूप से क्षति पहुंचाते हैं।

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रोग लक्षण:

1. दुर्गन्ध भरा कीचड़ जैसा पतला दस्त।
2. दस्त के साथ में श्लेष्मा झिल्ली, वासा एवं कभी- कभी परजीवी भी जाते हैं।
3. पशु श्वास में अक्सर सड़े मक्खन जैसी गंध आती है।
4. आंत में परजीवियों के अवरोध से कब्ज होता है।
5. पशु प्रतिदिन दुबला एवं कमजोर होता जाता है।
6. रक्त की कमी एवं त्वचा खुरदरी हो जाती है।
7. उपचार न मिलने से रोगी पशु मर भी सकता है।

रोग का निदान:

रोग लक्षणानुसार मल परीक्षण एवं शव परीक्षण से इस रोग का निदान किया जाता है।
1. मल परीक्षण:
मल परीक्षण से परजीवी के अंडे जो की गोलाकार व सूक्ष्म गड्डे युक्त एल्यूमिनी परत से ढके मिलते हैं।
2. शव परीक्षण:
उदर एवं आंत में परजीवी गुच्छे के रूप में मिलते हैं। उदर शौभ, आंत शौभ, पैरीटोनिटिस, निमोनिया, दुर्बलता तथा विशिष्ट प्रकार की गंध आदि प्रमुख विकृतियां देखने को मिलती हैं।

रोग का रोकथाम:
यह रोग बछड़ों में बहुत अधिक मिलता है। ऐसे में गर्भवती मादा या दूध देने वाले पशुओं को पहले से ही कृमि नाशक दवा पशुचिकित्सक की सलाह अनुसार देनी चाहिए। यह रोग दूषित चारा, दाना व पानी पीने से फैलता है इसलिए पशुओं को साफ चारा व पानी देना चाहिए। बाड़े में प्रतिदिन मल-मूत्र निकलना चाहिए तथा उसको साफ सुथरा रखना चाहिए। ग्रसित पशु का कृमिनाशक दवा पिलानी चाहिए।

रोग का उपचार:
1. पिपराजिन 250-300 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. भार के अनुसार एक ही खुराक पर्याप्त होती हैं यदि आवश्यक हो तो 20-25 दिन बाद एक खुराक और भी दी जा सकती है।
2. लिवामिसोल: 7.5 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. भार के अनुसार।
3. फैनबेनडाजोल: 7.5 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. भार के अनुसार।
नमस्कार,

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