पशुओं में बांझपन – कारण और उपचार एवं प्रजनन विकार

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पशुओं में बांझपन – कारण और उपचार एवं प्रजनन विकार

सौजन्य से — डॉ राजेश कुमार सिंह, जमशेदपुर ,झारखंड
9431309542
Post no 1399 dt 13th sept 2019

पशुओं में बांझपन – कारण और उपचार एवं मादा पशुओं के प्रमुख प्रजनन विकार

भारत में डेयरी फार्मिंग और डेयरी उद्योग में बड़े नुकसान के लिए पशुओं का बांझपन ज़िम्मेदार है। बांझ पशु को पालना एक आर्थिक बोझ होता है और ज्यादातर देशों में ऐसे जानवरों को बूचड़खानों में भेज दिया जाता हैं। चुकी भारत मे गायों के कत्ल पर पूर्ण परतिबंध है,ऐसी परिस्थिति मे ये बोझ हमारे किसानो पर और बढ़ जाता है। पशुओं में बांझपन न केवल भारत बलिक पूरे विश्व की समस्या है। इस समस्या का निदान हम बहुत हद तक उतम प्रबंधन के द्वारा कर सकते है।

पशुओं में बांझपन
पशुओं में, दूध देने के 10-30 प्रतिशत मामले बांझपन और प्रजनन विकारों से प्रभावित हो सकते हैं। अच्छा प्रजनन या बछड़े प्राप्त होने की उच्च दर हासिल करने के लिए नर और मादा दोनों पशुओं को अच्छी तरह से खिलाया-पिलाया जाना चाहिए और रोगों से मुक्त रखा जाना चाहिए।

बांझपन के कारण—
बांझपन के कारण कई हैं और वे जटिल हो सकते हैं। बांझपन या गर्भ धारण कर एक बच्चे को जन्म देने में विफलता, मादा में कुपोषण, संक्रमण, जन्मजात दोषों, प्रबंधन त्रुटियों और अंडाणुओं या हार्मोनों के असंतुलन के कारण हो सकती हैं।

यौन चक्र
गायों और भैंसों दोनों का यौन (कामोत्तेजना) 18-21 दिन में एक बार 18-24 घंटे के लिए होता हैं। लेकिन भैंस में, चक्र गुपचुप तरीके से होता है और किसानों के लिए एक बड़ी समस्या प्रस्तुत करता हैं। किसानों के अल-सुबह से देर रात तक 4-5 बार जानवरों की सघन निगरानी करनी चाहिए। उत्तेजना का गलत अनुमान बांझपन के स्तर में वृद्धि कर सकता है। उत्तेजित पशुओं में दृश्य लक्षणों का अनुमान लगाना काफी कौशलपूर्ण बात हैं। जो किसान अच्छा रिकॉर्ड बनाए रखते हैं और जानवरों के हरकतें देखने में अधिक समय बिताते हैं, बेहतर परिणाम प्राप्त करते हैं।

बांझपन से बचने के लिए युक्तियाँ——
ब्रीडिंग कामोत्तेजना अवधि के दौरान किये जाने वाले कार्य ।

जो पशु कामोत्तेजना नहीं दिखाते हैं या जिन्हें चक्र नहीं आ रहा हो, उनकी जाँच कर इलाज किया जाना चाहिए।
कीड़ों से प्रभावित होने पर छः महीने में एक बार पशुओं का डीवर्मिंग के उनका स्वास्थ्य ठीक रखा जाना चाहिए। सर्वाधिक डीवर्मिंग में एक छोटा सा निवेश, डेरी उत्पाद प्राप्त करने में अधिक लाभ ला सकता हैं।
पशुओं को ऊर्जा के साथ प्रोटीन, खनिज और विटामिन की आपूर्ति करने वाला एक अच्छी तरह से संतुलित आहार दिया जाना चाहिए। यह गर्भाधान की दर में वृद्धि करता है, स्वस्थ गर्भावस्था, सुरक्षित प्रसव सुनिश्चित करता है, संक्रमण की घटनाओं को कम और एक स्वस्थ बछड़ा होने में मदद करता हैं।
अच्छे पोषण के साथ युवा मादा बछड़ों की देखभाल उन्हें 230-250 किलोग्राम इष्टतम शरीर के वजन के साथ सही समय में यौवन प्राप्त करने में मदद करता है, जो प्रजनन और इस तरह बेहतर गर्भाधान के लिए उपयुक्त होता हैं।
गर्भावस्था के दौरान हरे चारे की पर्याप्त मात्रा देने से नवजात बछड़ों को अंधेपन से बचाया जा सकता है और (जन्म के बाद) नाल को बरकरार रखा जा सकता हैं।
बछड़े के जन्मजात दोष और संक्रमण से बचने के लिए सामान्य रूप से सेवा लेते समय सांड के प्रजनन इतिहास की जानकारी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
स्वास्थ्यकर परिस्थितियों में गायों की सेवा करने और बछड़े पैदा करने से गर्भाशय के संक्रमण से बड़े पैमाने पर बचा जा सकता हैं।
गर्भाधान के 60-90 दिनों के बाद गर्भावस्था की पुष्टि के लिए जानवरों की जाँच योग्य पशु चिकित्सकों द्वारा कराई जानी चाहिए।
जब गर्भाधान होता है, तो गर्भावस्था के दौरान मादा यौन उदासीनता की अवधि में प्रवेश करती है (नियमित कामोत्तेजना का प्रदर्शन नहीं करती). गाय के लिए गर्भावस्था अवधि लगभग 285 दिनों की होती है और भैंसों के लिए, 300 दिनों की.
गर्भावस्था के अंतिम चरण के दौरान अनुचित तनाव और परिवहन से परहेज किया जाना चाहिए।
गर्भवती पशु को बेहतर खिलाई-पिलाई प्रबंधन और प्रसव देखभाल के लिए सामान्य झुंड से दूर रखना चाहिए।
गर्भवती जानवरों का प्रसव से दो महीने पहले पूरी तरह से दूध निकाल लेना चाहिए और उन्हें पर्याप्त पोषण और व्यायाम दिया जाना चाहिए। इससे माँ के स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद मिलती है, औसत वजन के साथ एक स्वस्थ बछड़े का प्रजनन होता है, रोगों में कमी होती है और यौन चक्र की शीघ्र वापसी होती हैं।

मादा पशुओं के प्रमुख प्रजनन विकार (बांझपन)
1.रिपीट ब्रिडिंग(पशु का बार-बार गर्मीं में आना)
प्रजनन का यह विकार पशु पालकों तथा कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियनों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पशु पालकों को पशु के गर्भ धारण ण कर पाने के कारण बहुत नुक्सान उठाना पड़ता हैं। इसमें पशु दो या दो से अधिक बार गर्भाधान करने के बावजूद गर्भधारण नहीं कर पाता तथा अपने नियमित मद चक्र में बना रहता हैं। सामान्य परीक्षण के दौरान वह लगभग नि:रोग लगता हैं।

रिपीट ब्रिडिंग(बांझपन) के अनेक कारण हो सकते हैं जिनमें से निम्नलिखित कारण प्रमुख है:

(क) पश की प्रजनन नली में वंशानुगत, जन्म से अथवा जन्म के बाद होने वाले विकार:-
इनमें प्रजनन नली के अंगों में किसी एक खंड का ण होना, अंडाशय का बरसा के साथ जुड जाना, अंडाशय में रसौली, गर्भाशय ग्रीवा का टेढ़ा होना(kinked cervix), डिम्ब वाहनियों में अवरोध का होना, गर्भाशय की अंदर की परत (endometrium) में विकार आदि शामिल हैं।

(ख) शुक्राणुओं, अंडाणु तथा प्रारम्भिक भूर्ण में वंशानुगत, जन्म जात तथा जन्म के बाद होने वाले विकार:-
इनमें काफी देर से अथवा मदकल के समाप्त होने पर गर्भाधान कराने के कारण अंडाणु का निषेचन योग्य समय निकल जाना, अंडाणु अथवा शुक्राणु में विकार,एक ही सांड के वीर्य का कई पीडियों में प्रयोग (breeding), शुक्राणु व अंडाणु में मेल न होना, मद काल की प्रारम्भिक अवस्था (early heat) में गर्भाधान कराना जिससे अंडाणु के पहुंचने तक शुक्राणु पुराने हो जाते हैं, आदि प्रमुख हैं।

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(ग) पशु प्रबंध में कमियाँ:-
इनमें पशुपालक द्वारा पशु के मद काल में होने का सही पता न लगा पाना, अकुशल व्यक्ति से कृत्रिम गर्भाधान करना, पशु के कुपोषण तथा पशु में तनाव (strees) इत्यादि शामिल हैं।

(घ)अंत: स्रावी विकार:-
इनमें अंडाणु का अंडाशय से बाहर न आना (anovulation), फोलिकल का समय हो जाना (follicilar atressia) अंडाणु का अंडाशय से बाहर आना (delayed ovulation), सिस्टिकओवरी, कोरपस ल्युटियम का असक्षम होना (luteal insufficienc),(weak heat) आदि शामिल हैं।

(ड.)प्रजनन अंगों के संक्रामक रोग अथवा उनकी सूजन:-
इन् रोगों में ट्रायकोमोनास फीटस, विब्रियो फीटस, ब्रुसेलोसिस, आई.बी.आर-आई.पी.वी. कोरिनीबैक्टेरियम पायोजनीज तथा अन्य जीवाणु व विषाणु शामिलहैं। इसमें गर्भाशय में सूजन हो जाती है जिससे भ्रूण की प्रारम्भिक अवस्था में ही मृत्यु हो जाती हैं।

उपचार व निवारण:-
रिपीट ब्रीडर पशु का परीक्षण व उपचार पशु चिकित्सक से करना चाहिए से करना चाहिए ताकि इसके कारण का सही पता लग सके। ऐसे पशु को कई बार परीक्षण के लिये बुलाना पड़ सकता है क्योंकि एक बार पशु को देखने से पशु चिकित्सक का किसी खास नतीजे पर पहुंचना कठिन होता हैं। अंडाशय से अंडाणु निकलता है या नहीं इसका पता पशु का मद काल में तथा मद काल के 10 दिन के बाद पुन: परीक्षण करके लगाया जा सकता हैं। दस दिन के बाद परीक्षण करने पर पशु की और भी बहुत सी बीमारियों का पता पशु चिकित्सक लगा सकते हैं। अत: पशु चिकित्सक की सलाह पर पशु को उसके परीक्षण तथा इलाज के लिये अवश्य लाना चाहिये।
डिम्ब वाहनियों में अवरोध जोकि रिपीटब्रीडिंग का एक मुख्य कारण है का पता एक विशेष तकनीक जिसे मोडिफाइड पी एस पी टेस्ट कहते हैं, द्वारा लगाया जा सकता हैं। अत: स्रावी विकार के लिए कुछ विशेष हारमोन्स जी.एं.आर.एच.अथवा एल.एच.आदि लगाए जाते हैं।
मद काल में पशु के गर्भाशय से म्यूकस एकत्रित कर सी.एस.ति. परीक्षण के लिए भेजा जा सकता है जिससे गर्भाशय के अंदर रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं का पता लग जाता हैं तथा उन पर असर करने वाली दवा भी ज्ञान हो जाता हैं। इस प्रकार उस दवा के प्र्यिग से गर्भाशय के संक्रमण को नियन्त्रित किया जा सकता हैं।
पशु के मद काल का पशु पालक को विशेष ध्यान रखना चाहिए इसके किए उसे पशु में मद के लक्षणों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक हैं। ताकि वह पशु का मद की सही अवस्था (द्वितीय अर्ध भाग) में गर्भाधान करा सके।
पशु पालक को पशु के सही मद अवस्था में न होने की दिशा में उसका जबरदस्ती गर्भाधान नहीं करना चाहिए तथा कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियन को भी अनावश्यक रूप से पशु को टीका नहीं लगाना चाहिए क्योंकि इससे रिपीटब्रीडर की संख्या बढ़ती है और पशु को कई और बीमारियां होने का खतरा बढ़ जाता हैं।
रिपीटब्रीडर पशु को गर्भाशय ग्रीवा के मध्य में गर्भाधान करना उचित है क्योंकि कुछ पशुओं में गर्भधारण के बाद भी मदचक्र जारी रहता हैं। ऐसे पशु का गर्भाशय के अंदर गर्भाधान करने से भ्रूण की मृत्यु की मृत्यु की पूरी सम्बह्वना रहती हैं।
पशु पालक को पशु की खुराक पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कुपोषण के शिकार पशु की प्रजनन क्षमता कम हो जाती हैं। पशु में खनिज मिश्रण व विटामिन्स ई आदि की कमी से प्रजनन विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
देर से अंडा छोड़ने वाले पशु (delayed ovulator) में 24 घंटे के अंतराल पर 2-3 बार गर्भाधान कराने से अच्छे परीक्षण मिलते हैं।
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(2) पशु का मद में न आना(बांझपन):-
यौवनावस्था प्राप्त करने के बाद मादा पशु में मद चक्र आरंभ हो जाता है तथा यह चक्र सामान्यत: तब तक चलता रहता है जब तक कि वह बूढा होकर प्रजनन में असक्षम नहीं हो जाता। प्रजनन अवस्था में यदि पशु मद में नहीं आता तो इस स्थिति को एनस्ट्रस को टू अनस्ट्रस भी कहते हैं। यह निम्नलिखित द्वितीय श्रेणी एनस्ट्रस।

प्रथम श्रेणी एनस्ट्रस:-
इस श्रेणी के एनस्ट्रस में अंडाशय के ऊपर मद चक्र की कोई रचना जैसे फोलीकल अथवा कोरपस ल्यूटियम नहीं पायी जाती। इस एनस्ट्रस को ट्रू अनस्ट्रस भी कहते हैं। यह निम्नलिखित कारणों से हो सकता हैं।

(क) कुपोषण

(ख) वृद्धावस्था

(ग) अत: व बह्मा परजीवी तथा लम्बी (chronic) बीमारियां

(घ) ऋतु का प्रभाव (विशेष कर भैंसों में)

(ड़) प्रजनन अंगों के विकार।

द्वितीय श्रेणी एनस्ट्रस:-
इस वर्ग के एनस्ट्रस में एनस्ट्रस में अंडाशय के ऊपर मद चक्र की रचना जैसे कार्पस ल्यूटियम अथवा फोली कल आदि पाई जाती हैं। यह एनस्ट्रस निम्नलिखित कारणों से हो सकता हैं।

(क)गर्भावस्था:-
गर्भ धारण के पश्चात कोर्पस ल्युटियम प्रोजेस्टरोन हार्मोन का स्राव करने लगती हैं। यह हार्मोन पशु को गर्मीं में आने से रोकता हैं। अत: गर्भावस्था पशु के मद में न आने का प्रमुख कारण हैं।

(ख)दृढ कोर्पस ल्युटियम (persistent corpus luteum) के कारण एनस्ट्रस :-
इस अवस्था में गर्भाशय में पीक पड़ जाने अथवा अन्य किसी कारण से अंडाशय में कार्पस ल्युटियम खत्म न होकर क्रियाशील अवस्था में बनी रहती है जोकि पशु को गर्मीं में आने से रोकती हैं।

(ग)ल्युटियल सिस्ट के कारण एनस्ट्रस:-
इसमें अंडाशय में एक सिस्ट बन जाता है जिससे प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन का स्राव होता है फलस्वरूप पशु गर्मीं में नहीं आता।

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(घ)कमजोर मद के कारण एनस्ट्रस:-
इसमें पशु में बाहर से गर्मीं के लक्षण दिखायी नहीं देते लेकिन पशु खामोश अवस्था में गर्मीं में आता रक्त है और नियत समय पर अंडाशय से अंडाणु भी निकलता हैं।

उपचार तथा निवारण:-
(1) पशु को सदैव सन्तुलित आहार देना चाहिए देना चाहिए तथा पशु के आहार में खनिज मिश्रण अवश्य मिलाना चाहिए।
(2) पशु के मद में न आने पर उसे पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए।
(3) कौपर-कोबाल्ट की गोलियां भी पशु को दी जा सकती हैं।
(4) आवश्यकतानुसार पशु को पेट के कीड़ों की दवा भी अवश्य देनी चाहिए।
(5) यदि पशु स्थिर कोर्पस ल्युटियम अथवा ल्युटियल सिस्ट के कारण गर्मीं में नहीं आता तो उसे प्रोस्टाग्लेंडीन का टीका लगाया जाता हैं।
(6) गोनेडोट्रोफिन्स,जी.एं.आर.एच.,विटामिन ए तथा फोस्फोरस के टीके भी एनस्ट्रस में दिए जाते हैं लिकिन ये पशु चिकित्सक द्वारा ही लगाए जाने चाहिए।
(7)गर्भाशय ग्रीवा पर ल्युगोल्स आयोडीन का पेंट करने से भी इस विकार में लाभ होता हैं।

3॰ मेट्राइटिस/एन्डोमेट्राइटिस (गर्भाशय शोथ):-
मेट्राइटिस अथवा गर्भाशय शोथ का अर्थ है सम्पूर्ण गर्भाशय में सूजन होना तथा एन्डोमेट्राइटिस गर्भाशय के अंदर की पर्त की सूजन को कहते हैं। अधिकांशत:इसमें ओशु का सामान्य स्वास्थ्य ठीक रहता है लेकिन उसकी प्रजन क्षमता(बांझपन) पर इसका कुप्रभाव पड़ता हैं। मेट्राइटिस अथवा एन्डोमेट्राइटिस पशुओं में कुछ विशेष बीमारियों के बाद उत्पन्न होती है जैसे कि कष्ट प्रसव, ब्याने के बाद साल (प्लेसेंटा)का रुक जाना तथा कुछ अन्य कारण। प्रसव के समय कृत्रिम गर्भाधान अथवा प्रा.ग. के समय पर फिर सीधे रक्त परिवहन से रोगाणु गर्भाशय में प्रवेश करके मेट्राइटिस अथवा एन्डोमेट्राइटिस पैदा कर सकते हैं।

कई अन्य बीमारियां जैसे कि ब्रुसिलोसिस, ट्राइकोमोनिओसिस तथा विब्रियोसिस आदि भी एन्डोमेट्राइटिस पैदा करके पशु में बांझपन पैदा कर सकती हैं। मेट्राइटिस अथवा एन्डोमेट्राइटिस का प्रमुख लक्षण योनि से सफेद-पीले रंग का गर्व पदार्थ बाहर निकलना हैं। इसकी मात्रा बीमारी की तीव्रता पर निर्भर करती है तथा सबक्लीनिकल एन्डोमेट्राइटिस के केसों में इस प्रकार का कोई पदार्थ निकलता दिखायी नहीं देता।

उपचार व रोकथाम:-
मेट्राइटिस अथवा एन्डोमेट्राइटिस का उपचार गर्भाशय में उपयुक्त दवा जैसे एंटीबायोटिक आदि डालकर किया जाता हैं। इसके अतिरिक्त एंटीबायोटिकके टीके मांस भी में लगाए जा सकते हैं। गर्भाशय से एकत्रित पदार्थ का सी.एस.टी.करवा के उपयुक्त औषधि का प्रयोग इस बीमारी का सर्वोत्तम उपचार हैं। पशु के ब्याने के समय तथा कृत्रिम अथवा प्राकृतिक गर्भाधान के समय सफाई का पूरा ध्यान रखकर इस रोग की रोकथाम की जा सकती हैं।

4. योमेट्रा (गर्भाशय में पीक पड़ जाना):-
पायोमेट्रा में पशु के गर्भाशय में पीक इकट्ठी हो जाती हैं। इसमें पशु गर्मी में नहीं आता तथा समय-समय पर उसकी योनि से सफेद रंग का डिस्चार्ज निकलता देखा जा सकता हैं। पशु का परीक्षण करने पर उसकी योनि में सफेद रंग का द्रव पदार्थ दिखता है गुदा द्वारा परीक्षा करने पर गर्भाशय फूली हुई अवस्था में पाया जाता हैं। अधिकांशत: पशु के अंडाशय में कोर्पस ल्युटियम भी पायी जाती हैं। इस बीमारी का पशु की गर्भावस्था से अंतर करना आवश्यक ओता है क्योंकि कई बार ऐसे मादा पशु को गलती से गर्भवती समझ लिया जाता हैं।

उपचार व रोकथाम:-
इस बीमारी(बांझपन) का सबसे अच्छा व आधुनिक इलाज प्रोस्टाग्लेंड़िन एफ-2 अल्फ़ा का इंजेक्शन देनाहैं। इस टीके के प्रयोग से सी.एल.खत्म ही जाती है जिससे पशु मद में आ जाता है और गर्भाशय में भरा सारा पीक बाहर निकल जाता हैं।

(5)गर्भपात(बांझपन):-
गाय व भैंसों में गर्भपात वह अवस्था है जिससे कृत्रिम अथवा प्राकृतिक गर्भाधान के द्वारा गर्भ धारण किए पशु अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को सामान्य गर्भावस्था पूरी होने के लगभग 20 दिन पहले तक की अवधि में किसी भी समय गर्भाशय से बाहर फेंक देता हैं। यह बच्चा या तो मर हुआ होता है या फिर वह 24 घण्टों से कम समय तक ही जीता हैं। प्रारम्भिक अवस्था में (2-3 माह की अवधि तक)होने वाले गर्भपात का पशु पालकों को कई बार पता ही नहीं चलता तथा पशु जब पुन: गर्मी में आता है तो वे उसे खाली समय बैठते हैं। दो या तीन माह के बाद गर्भपात होने पर पशु पालकों को इसका पता लग जाता हैं।

गर्भपात के कारण:-
गाय या भैंसों में गर्भपात होने के अनेक कारण हो सकते हैं जिन्हें हम दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं।

संक्रामक कारण:-
नमें जीवाणुओं के प्रवेश द्वारा पैदा होने वाली बीमारियां ट्रायकोमोनिएसिस,विब्रियोसिस, ब्रूसेल्लोसिस, साल्मोनेल्लोसिस, लेप्टोस्पाइरोसिस, फफूंदी तथा अनेक वाइरल बीमारियां शामिल हैं।

उपचार व रोकथाम:-
यदि पशु में गर्भपात के लक्षण शुरू हो गए हो तो उस में इसे रिक पाना कठिन होता हैं। अत: पशु पालकों को उन कारणों से दूर रहना चाहिए जिनसे गर्भपात होने की सम्भावना होती हैं। गर्भपात की रोक थम के लिए हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।
गौशाला सदैव साफ सुथरी रखन चाहिए तथा उसमें बीच-बीच में कीटाणु नाशक दवा का छिड़काव करना चाहिए।
गाभिन पशु की देखभाल का पूरा ध्यान रखना चाहिए तथा उसे चिकने फर्श पर नहीं बांधना चाहिए।
गाभिन पशु की खुराक का पूरा ध्यान रखना चाहिए तथा उसे सन्तुलित आहार देना चाहिए।
मद में आए पशु का सदैव प्रशिक्षित कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियन द्वारा हीगर्भधान करना चाहिए।
गर्भपात की सम्भावना होने पर शीघ्र पशु चिकित्सक से सलाह लेनी चाहिए।
यदि किसी पशु में गर्भ पात हो गया हो तो उसकी सुचना नजदीकी पशु चिकित्सालय में देनी चाहिए, ताकि इसके कारण का सही पता चल सके। गिरे हुए बच्चे तथा जेर को गड्ढे में दबा देना चाहिए तथा गौशाला को ठीक प्रकार से किटाणु नाशक दवा से साफ करना चाहिए।
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(6) ब्याने के बाद जेर का न निकलना:-
गाय व भैंसों में ब्याने के बाद जेर का बाहर न निकलना अन्य पशुओं की अपेक्षा काफी ज्यादा पाया जाता हैं। सामान्यत:ब्याने के 3से 8 घंटे के बीच जेर बाहर निकल जाती हैं। लेकिन कई बार 8 घंटे से अधिक समय बीतने के बाद भी जेर बाहर नहीं निकलती। कभी कभी यह भी देखा गया है कि आधी जेर टूट कर निकल जाती है तथा आधी गर्भाशय में हे रह जाती हैं।

कारण :-
जेर न निकलने के अनेक कारण हो सकते हैं। संक्रामक करणों में विब्रियोसिस, , लेप्टोस्पाइरोसिस,टी.बी., फफूंदी,विरस तथा कई अन्य वाइरस तथा कई अन्य संक्रमण शामिल है लेकिन ब्रूसेल्लोसिस बीमारी में जेर न निकलने की डर सबसे अधिकहोती हैं। असंक्रामक कारणों में असंक्रामक गर्भपात, समय से पहले प्रसव, जुड़वाँ बच्चे होना, कष्ट प्रसव, वृधाब्यानेव्स्था के बाद पसु को बहुत जल्दी गर्भित कराना, कुपोषण,हार्मोन्स का असंतुलन आदि प्रमुख हैं।

लक्षण:-
गर्भाशय में जेर के रह अंदर सड़ने लगती है तथा योनि द्वार से बदबूदार लाल रंग का डिस्चार्ज निकलने लगता हैं। पशु की भूख कम हो जाती है तथा दूध का उत्पादन भी गिर जाता हैं। कभी कभी उसे बुखार भी हो जाता हैं। गर्भाशय में संक्रमण के कारण पशु स्ट्रेनिंग(गर्भाशय को बाहर निकालने की कोशिश)करने लगता है जिससे योनि अथवा गर्भाशय तथा कई बार गुदा भी बाहर निकल आते हैं तथा बीमारी जटिल रूप ले लेती हैं।

उपचार व रोकथाम:-
पशु की जेर को हाथ से निकालने के समय के बारे में विशेषज्ञों के अलग-अलग मत हैं। कई लोग ब्याने के 12 घंटे के बाद जेर से निकालने की सलाह देते हैं जबकि अन्य 72 घण्टों तक प्रतीक्षा करने के बाद जेर हाथ से निकलवाने की राय देते हैं। यदि जेट गर्भाशय में ढीली अवस्था में पड़ी है तो उसे हाथ द्वारा बाहर निकलने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन यदि जेर गर्भाशय से मजबूती से जुडी है तो इसे जबरदस्ती निकालने से रक्त स्राव होने तथा अन्य जटिल समस्यायें पैदा होने की पूरी सम्भावना रहती हैं।

ब्याने के बाद ओक्सीटोसीन अथवा प्रोस्टाग्लेंड़िन एफ-2 एल्फा टीकों को लगाने से अधिकतर पशु जेर आसानी से गिरा देते हैं। लेकिन ये टीके पशु चिकित्सक की सलाह से ही लगवाने चाहिए। पशु की जेर हाथ से निकलने के बाद गर्भाशय में जीवाणु नाशक औषधि अवश्य रखनी चाहिए तथा उसे दवाइयां देने का कं पशु चिकित्सक से ही करवाना चाहिए, पशु पालक को स्वयं अथवा किसी अप्रशिक्षित व्यक्ति से यह कार्य नहीं करवाना चाहिए। पशु को गर्भावस्था में खनिज मिश्रण तथा सन्तुलित आहार अवश्य देना चाहिए। प्रसव से कुछ दिनों पहले पशु को विटामिन ई का टीका लगवाने से यह रोग किया जा सकता हैं।

(7) गर्भाशय का बाहर आजाना (प्रोलैप्स ऑफ यूटरस):-
कई बार गाय व भैंसों में प्रसव के 4-6 घंटे के अंदर गर्भाशय बाहर निकल आता है जिसका उचित समय पर उपचार न होने पर स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं।कष्ट प्रसव के बाद गर्भाशय के बाहर निकलने की संभावना अधिक रहती हैं। इसमें गर्भाशय उल्टा होकर योनि से बाहर आ जाता हैं तथा पशु इसमें प्राय: बैठ जाता हैं। गर्भाशय तथा अंदर के अन्य अंगों को बाहर निकलने की कोशिश में पशु जोर लगाता रहता है जिससे कई बार गुददा भी बहार आ जाता है तथा स्थिति और गम्भीर हो जाती हैं।

गर्भाशय के बाहर निकलने के मुख्य कारण निम्नलिखित है:-
(क) पशु की वृद्धावस्था।
(ख) कैलसियम की कमी।
(ग) कष्ट प्रसव जिसके उपचार के लिए बच्चे को खींचना पड़ता हैं।
(घ) प्रसव से पूर्व योनि का बाहर आना।
(ड़) जेर का गर्भाशय से बाहर न निकलना।

उपचार व रोकथाम:-
जैसे ही पशु में गर्भाशय के बाहर निकलने का पता चले उसे दूसरे पशुओं से अलग कर देना चाहिए ताकि बाहर निकले अंग को दूसरे पशुओं से नुक्सान न हबाहर निकले अंग को गीले तौलिए अथवा चादर से ढक देना चाहिए तथा यदि संभव हो तो बाहर निकले अंग को योनि के लेवल से थोड़ा ऊँचा रखना चाहिए ताकि बाहर निकले अंग में खून इकट्ठा न हो। बाहर निकले अंग को अप्रशिक्षित व्यक्ति से अंदर नहीं करवाना चाहिए बल्कि उपचार हेतू शीघ्रातिशीघ्र पशु चिकित्सक को बुलाना चाहिए।यदि पशु में कैलसियम की कमी है टो उसे इंजेक्शन कैलसियम बोरोग्लुकोनेट दिया जाता हैं।

बाहर निकले अंग को को गर्म से पानी अथवा सेलाइन के पानी से ठीक प्रकार साफ कर लिया जाता हैं। यदि गर्भाशय के साथ जेर भी लगी हुई है तो उसे जबरदस्ती निकलने की आवश्यकता नहीं होती। हथेली के साथ सावधानी पूर्वक गर्भाशय को अंदर किया जाता है तथा उसे अपने स्थान पर रखने के उपरांत योनि द्वार में टांके लगा दिए जाते हैं। इसके बाद पशु को आवश्यकतानुसार कैलसियम बोरोग्लुकोनेट , ओक्सीटोसीन तथा एंटीबायोटिक कजे टीके लगाये जा सकते हैं। इस बीमारी में यदि पशु का ठीक प्रकार से इलाज न करवाया जाए तो पशु स्थायी बांझपन का शिकार हो सकता हैं। अत: पशु पालक को इस बारे में कभी ढील नहीं बरतनी चाहिए।
गर्भावस्था में पशु की उचित देख भाल करने तथा उसे अच्छे किस्म के खनिज मिश्रण से साथ सन्तुलित आहार देने से बांझपन की सम्भावना को कम किया जा सकता हैं। जिस पशु में कैलसियम बोरोग्लुकोनेट तथा विटामिन ई व सेलेनियम के इंजेक्शन देने से भी लाभ हो सकता हैं।

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