पशुओ के प्रमुख संक्रामक रोग और उनके बचाव

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पशुओ के प्रमुख संक्रामक रोग और उनके बचाव

डॉक्टर आलोक सिंह, डॉक्टर दिवाकर वर्मा

१. पी.एच.डी. छात्र पशु औषधि विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा विज्ञान महाविद्यालय ,पंतनगर

२. वैज्ञानिक पशुपालन, कृषि विज्ञान केंद्र,  होशंगाबाद (मध्यप्रदेश)

 

भारत प्राचीन कल से एक कृषि प्रधान देश रहा है। यदपि वर्त्तमान समय में देश में औद्योगीकरण भी तीव्र गति से हो रहा है।परन्तु फिर भी कही न कही भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि और उससे सम्बद्ध व्यवसायों पर आधारित है।पशुपालन भी कृषि से सम्बद्ध एक व्यावसाय है,जो की वर्त्तमान परिदृश में    एक व्यावसाय का रूप धारण कर चुका है। अतः यह अवशयक हो जाता है की पशुपालन के लिए जिन पशुओ का प्रयोग किया जाये वे उच्च नस्ल के साथ-साथ निरोगी भी हो ताकि उनसे उच्च मात्र में गुणवत्ता युक्त उत्पादों को पाया जा सके जिससे परोक्ष या अपरोक्ष रूप से आर्थिक स्वलंबन के लक्ष्य को पाया जा सके साथ ही वित्तीय नुकसान से बचा जा सके। पशुओ में होने वाले प्रमुख संक्रामक रोगों को उनके कारको के आधार पर निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  • जीवाणु जनित संक्रामक रोग
  • विषाणु जनित संक्रामक रोग
  • प्रोटोजोआ जनित संक्रामक रोग

                     

                             जीवाणु जनित संक्रामक            

पशुओ में जीवाणु जनित प्रमुख संक्रामक रोग निम्नलिखित प्रकार के होते है :

१) गला घोटू (Haemorrhagic septicemia):

 

      यह मुख्यतः गायों और भैसों का एक संक्रामक रोग है जिसमे उच्च मृत्यु दर,उच्च रुग्णता दर, उच्च ज्वर, गले,गर्दन और छाती के उदरीय भाग की ओर सूजन के साथ–साथ कष्ट पूर्वक श्वासन जैसे मुख्य लक्षण पाए जाते है।    

  • यह एक तीव्र संक्रामक रोग है जो की मुख्यतः गायों और भैसों में होता है।
  • सामान्यतः यह रोग बरसात के मौसम (जुलाई से सितम्बर) में ज्यादा होता है।
  • यह रोग सामान्यतः प्रतिकूल मौसम की अवस्था में ,कुपोषण और पशु के लम्बे दूरी की यात्रा करने के फलस्वरूप भी होता है।
  • भारत में यह बीमारी स्थानिक प्रकार की है।
  • यह बमारी Pasteurella multocida नामक जीवाणु द्वारा होती है।
  • किसी भी उम्र और नस्ल के पशु इस रोग से प्रभावित हो सकते है।

इस बीमारी में उच्च ज्वर (१०५-१०६F),अत्याधिक लार का गिरना,श्लेष्मल झिल्ली में रक्त का असाधारण जमाव, भूख का ख़त्म हो जाना, जुगाली का बंद हो जाना,कठनाई एवं घर्र-घर्र की

  • आवाज़ युक्त श्वसन का पाया जाना,गले के भाग में सूजन का पाया जाना आदि इस बीमारी के प्रमुख लक्षण है।
  • इस बीमारी का निदान इनके नैदानिक संकेतो के आधार पर एवं रक्त परीक्षण के उपरांत रक्त में कारक जीवाणु, जो की दो ध्रुवीय होते है के पाए जाने से होता है।
  • इस बीमारी के उपचार हेतु इन्ज. इनरोफ्लोक्सासिन @ ५  mg/kg ,IM, इन्ज. सलफाडिमीडीन @  १५० mg/kg, IV, इन्ज. ओक्सीटेट्रासाइकिलिन @ १० mg/Kg IV or IM का ३-५ दिनों के लिए प्रयोग करना चाहिए, साथ ही इन्ज.निमोवेट/मैक्सटोल /मेलोनेक्स/एविलिन  /डेक्सोना/डेरी फाईलिन का भी प्रयोग करना चाहिए।
  • इस रोग से बचाव के लिए पशुओ का मानसून सीजन से पहले (जून माह) में टीकाकरण करना चाहिए।

२) लगड़ी बुखार (Black quarter):

 

 

इस बीमारी को काला पैर, वातस्फीति गलन जैसे अन्य नामो से भी जाना जाता है। यह गाय, भैस और भेड़ की एक संक्रामक बीमारी है जिसमे उच्च ज्वर, भारी मांसपेशियो में वातस्फीति सीरो – रक्तस्रावी सूजन और लगड़ापन जैसे लक्षण पाए जाते है।

  • यह एक मिट्टी जनित रोग है।
  • यह रोग सामान्यतः बरसात के मौसम में होता है।
  • भारत में यह बीमारी स्थानिक प्रकार की होती है।
  • इस बीमारी का ऊष्मायन काल २-५ दिनों का होता है।
  • यह बमारी Clostridium chauvoei नामक जीवाणु द्वारा होती है।
  • यह जीवाणु ग्राम धनात्मक और बीजाणु बनाने वाला होता है।
  • यह बीमारी संक्रमित खाद्य पदार्थो के सेवन से फैलिती है।
  • इस बीमारी में उच्च ज्वर(१०६F – १०८F), भूख का ख़त्म हो जाना, जुगाली का बंद हो जाना, कठनाई युक्त श्वसन, प्राभावित पैर में लंगड़ापन, मांसपेशी में चटचटाहट युक्त सूजन का पाया जाना, आदि इस बीमारी के प्रमुख लक्षण है।
  • मांसपेशी के मृत्यु उपरांत परीक्षण करने पर वो गहरे रंग एवं गैस से भरी प्रतीत होती है।
  • इस बीमारी के उपचार हेतु इन्ज. अमोक्सीसिल्लीन @ २० mg/kg,IM, इन्ज. पेनसिल्लिन  @  २०००० units/kg, IM,प्रतिदिन ८ दिनों के लिए प्रयोग करना चाहिए, साथ ही इन्ज.निमोवेट/मैक्सटोल /मेलोनेक्स/एविलिन  का भी प्रयोग करना चाहिए।
  • इस रोग से बचाव के लिए पशुओ का मानसून सीजन से पहले (जून माह) में टीकाकरण करवाना चाहिए।

 

3) एंथ्रेक्स (Anthrax):

 

इस बीमारी को तिल्ली ज्वर, ऊन छटाई की बीमारी आदि नामो से भी जाना जाता है। यह एक तीव्र संक्रामक बीमारी है जो की सभी पालतू पशुओ और मनुष्यों में होती है, इस बीमारी में ऐकाऐक पशु/मनुष्य की मृत्यु हो जाती है एवं शरीर के प्राकृतिक छिद्रों से बिना जमा हुआ काले रंग से रक्त का श्राव पाया जाता  है।

  • यह एक मिट्टी जनित रोग है, जो की मौसम में व्यापक परिवर्तन होने की दशा पर सामान्यतः होता है।
  • यह बमारी Bacillus anthracis नामक जीवाणु द्वारा होती है।
  • यह जीवाणु ग्राम धनात्मक और बीजाणु बनाने वाला होता है।
  • इस बीमारी के बीजाणु ३-४ वर्षो तक मिट्टी में बने रहते है।
  • कार्बन डाई ऑक्साइड की अधिक मात्रा और मृत्यु शरीर के सडने की वजह से बीजाणु नहीं बन पाते है।
  • यह बीमारी संक्रमित खाद्य पदार्थो के सेवन से फैलती है।
    • इस बीमारी के प्रमुख लक्षण है, ऐकाऐक शरीर का ताप बढ़ जाना, भूख ख़त्म हो जाती है, जुगाली बंद हो जाती है,श्वसन दर और हृदय गति बढ़ जाती है, अफारा बन जाता है,शरीर के प्राकृतिक छिद्रों से काले रंग से रक्त का श्राव होता है।
    • रक्त के नमूने का सूक्ष्मदर्शी द्वारा परीक्षण कर के रोग का निदान कर सकते है।
    • इस बीमारी के उपचार हेतु इन्ज. अमोक्सीसिल्लीन @ २० mg/kg,IM, इन्ज.पेनिसिलिन @ २०००० units/kg,IM, इन्ज. ओक्सीटेट्रासाइकिलिन @ १० mg/Kg IV or IM को ८ दिनों तक प्रयोग कर सकते है।
    • इस रोग से बचाव के लिए पशुओ का मानसून सीजन से पहले जून माह में टीकाकरण करना चाहिए।
    • इस रोग से मरे पशु को अच्छी तरह से जमीन में दफनाना चाहिए। एवं मारे हुए पशु का मृत्योउपरांत परीक्षण नहीं करना चाहिए।

     

    ३) ब्रूसीलोसिस (Brucellosis): 

 

 

  • इस बीमारी को संक्रामक गर्भपात, स्थानिक मारी गर्भपात, तरंगित ज्वर जैसे अन्य नामो से भी जाना जाता है।यह पालतू पशुओ की एक तीव्र या जीर्ण संक्रामक बीमारी है जिसमे नाल के शोथ के साथ- साथ गर्भपात होता है।
    • यह पालतू पशुओ का एक संक्रामक रोग है।
    • यह भारत की एक मुख्य जूनोटिक बीमारी है।
    • इस रोग के कारण पशुपालन व्यवसाय को  अत्याधिक आर्थिक हानि होती है।
    • यह रोग Brucella spps. नामक जीवाणु द्वारा होता है।
    • इस रोग का जीवाणु एक विकल्पी अन्तः कोशीय परजीवी है।
    • गायों और भैसों में यह रोग मुख्यतः Brucella abortus नामक जीवाणु द्वारा होता है।
    • यह बीमारी गर्भपात के फलस्वरूप श्रावित द्रव्य से संक्रमित खाद्य पदार्थो के सेवन से फैलती है।
    • इस बीमारी में गर्भकाल के अंतिम चरण के समय गर्भपात होता है, इसके साथ ही इस बीमारी में नाल भी समय से बहार नहीं गिरती है।
    • गर्भस्थ शिशु एक पदार्थ “एरीथ्रीटोल’’ उत्पन्न करता है, जो की करक जीवाणु के गुणन को प्रारंभ कराता है।
    • इस बीमारी में बैलो के वृषण में सूजन हो जाती है।
    • इस बीमारी का निदान एम.आर.टी( दुग्ध छल्ला परिक्षण),रोज बंगाल परिक्षण और संक्रामक पदार्थो में कारक जीवाणु के पाऎ जाने से होता है।
    • इस बीमारी का पालतू पशुओ में कोई सफल उपचार नहीं उपलब्ध है।
    • इस रोग का बचाव पशुओ का टीकाकरण करने से होता है।
    • इस रोग से संक्रमित पशु को स्वस्थ पशुओ के समूह से अलग कर देना चाहिए।
    •                                 विषाणु जनित संक्रामक रोग

      पशुओ में विषाणु जनित प्रमुख संक्रामक रोग निम्नलिखित प्रकारके होते है:

      १) खुरपका मुहपका (FMD):

       

      यह बीमारी छालेयुक्त ज्वर,संक्रामक छाले जैसे अनन्य नामो से भी जानी जाती है। यह विभाजित खुर वाले जानवरों की अत्यंत गंभीर एवं संक्रामक बीमारी है जिसमे तीव्र ज्वर और जीभ, ओठ, मुह और पैरों पर फफोलेदार उभार बनजाते है।

       

    •                                  चित्र: खुरपका मुहपका रोग से ग्रसित गाय

      • यह रोग अत्यंत गंभीर एवं संक्रामक प्रवित का होता है।
      • यह रोग फटे खुर वाले सभी जानवरों में होता है।
      • संकर प्रजाति के एवं युवा जानवर इस रोग से व्यापक रूप से प्रभावी होते है।
      • यह बीमारी Picorna विषाणु से होती है।
      • यह रोग विश्व पशु स्वास्थ संगठन द्वारा सूचीबद्ध है।
        • इस बीमारी का ऊष्मायन काल २-८ दिनों का होता है।
        • इस रोग से नौजात बच्चे मरते है क्योंकि उनमे हृदय सम्बंधी समस्या उत्पन्न हो जाती है।
        • रोग के समाप्त हो जाने के बाद कुछ पशुओ में गर्मी सहन करने की क्षमता कम हो जाती है जिस कारण से पशु गर्मी के दिनों में हॉफता रहता है।
        • इस रोग के जीवाणु संक्रमित पशुओ के मलत्याग,एवं समस्त स्रावों में पाए जाते है।
        • दूषित चारा ,पानी ,नाद, दूध, फर्श, श्रमिको के कपड़ो तथा हाथों से यह रोग तुरंत फैलता है।
        • इस बीमारी में तीव्र बुखार का आना (१०४ F – १०५F ), जीभ, ओठ, मुह, थनों पर फफोलो का बनना जो बाद में घाव में परवर्तित हो जाते है, अत्याधिक लार का गिरना, लार लम्बी–लम्बी डोरी के सामान होती है, पशुओ के खुरो के बीच भी घाव हो जाते है, जिस कारण वह पैर से लंगड़ाते है, आदि प्रमुख बीमारी के लक्षण पाये जाते है।
        • इस रोग का निदान रोग के लक्षणों को देख कर,रोग से ग्रसित पशुओ से उनके छालों,घावो से एकत्रित किये गये द्रव,एवं लार आदि का प्रयोगशाला में परीक्षण कर के किया जाता है।
        • चूकी यह रोग विषाणु जनित है अतः इस रोग की कोई विशेष चिकित्सा उपलब्ध नहीं है। रोग ग्रसित पशु के मुह के छालों को अच्छे एंटीसेप्टिक घोल (फिटकिरी,पोटाश,बोरिक एसिड, आदि ) से अच्छे से धुलना चाहिए। पशु के पैर पर उपस्थित छालों को लाल दवा के पानी के घोल से अच्छी तरह से दिन में ३-४ बार धुलना चाहिए।बोरिक एसिड और ग्लिसरीन के मिश्रण को रोग ग्रसित पशु के मुह के छालों में लगाना चाहिए।संक्रमित पशु को खाने के लिए मुलायम एवं पौष्टिक आहार देना चाहिए।
        • इस रोग के बचाव के लिए पशु का टीकाकरण करना चाहिए टीकाकरण पहली बार ३-४ माह की अवस्था में लगाया जाता है और फिर साल में २ बार ६-६ माह के अंतर में लगाना चाहिए।

        २) ओ आर एफ (Contagious Ecthyma):

        यह भेड़ और बकरीयों की अत्यंत संक्रामक बीमारी है जिसकी रुग्णता दर उच्च होती है,इसमे फुंसी युक्त घाव थुथने,होठों और कोर्नेट पर बनते है। यह बीमारी आसानी से मनुष्यों में स्थानांतरित हो जाती है।

         

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                     चित्र: ओ आर एफ रोग से ग्रसित एक बकरी

        • ओआरएफ भेड़ो और बकरियों को संक्रमित करने वाला एक विषाणु जनित रोग है।
        • यह parapoxvirus नामक विषाणु से होती है।
        • इस बीमारी का ऊष्मायन काल २-३ दिनों का होता है।
        • इस बीमारी की होने की आवृत्ति सामान्यतः प्रसव के समय ज्यादा पाई जाती है।
        • इस बीमारी में नौजात बच्चों के मुह और नाक के चारो ओर की त्वचा प्रभावित होती है और जब प्रभावित बच्चे अपनी माँ के थनों से दूध पीते है तो सम्पर्क के कारण बीमारी माँ के आयन को भी प्रभावित करती है और जिस कारण अत्यंत पीड़ादायक स्थित उत्पन्न होती है।
        • इस बीमारी में जो घाव उत्पन्न होते है वे प्राथमिक रूप से वह ओठों और कृन्तक दात निकलने की जगह के मध्य उपस्थित श्लेश्म्त्वचीय जगह पर होते है जो बाद में आगे की ओर फैलते हुए मुह के अन्दर की ओर उपस्थित श्लेष्म त्वचा तक पहुच जाते है।
        • प्रारंभिक तौर पर इस रोग का निदान हम घावो के पैटर्न को देखकर कर सकते है।परन्तु रोग के सुनिश्चित निदान हेतु हम घावों से सैंपल लेकर प्रयोगशाला में जाच हेतु भेजते है।
        • चूकी यह बीमारी विषाणु जनित है अतः इसका कोई विशिष्ट उपचार नहीं है।भेड़ और बकरियो में यह बीमारी स्वसीमित प्रकार की होती है,खाने और घाव में लगाने हेतु एंटीबायोटिक औषधि का प्रयोग करेगे ताकि घावो में जीवाणुओं का संक्रमण न हो सके।

        ३) रेबीज(Rabies):

         

      • इस बीमारी को जलांतक,पागल कुत्ता, पागलपन जैसे अन्य नामो से भी जाना जाता है।यह मनुष्यों एवं गर्म रक्त वाले लगभग सभी जानवरों में होने वाला तीव्र विषाणु जनित संक्रमण है,जिसमे असामान्य व्यव्हार, सचेता अवस्था में कमी, बेचैनी का बढ़ना, चढ़ते हुये प्रकार के पक्षाघात, जैसे लक्षण पाये जाते है और अंत में पशु की मृत्यु हो जाती है।
      •  
        • इस रोग का निदान पशु के रोग के लक्षणो के आधार पर,पूर्व समय में पशु को किसी विक्षिप्त एवं बावरे पशु के काटे जाने के इतिहास के आधार पर एवं संक्रमित पशु के मरने के उपरांत उसके मस्तिस्क के परीक्षण के द्वारा किया जा सकता है।
        • मस्तिस्क के धब्बा (smear) के परीक्षण से negri bodies पाई जाती है।
        • चूकी यह रोग विषाणु जनित एवं अत्यधिक संक्रामक प्रकार का होता है इसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है।
        • पशु या मनुष्य में एक बार रोग के लक्षण आ जाने पर उसका उपचार सम्भव नहीं है।
        • इस रोग से बचाव ही इसका उपचार है और बचाव के लिए पशु का टीकाकरण करना चाहिये।
        • इस बीमारी में प्री बाईट अवस्था में टीकाकरण माह की अवस्था में कराना चाहिए और फिर वार्षिक आधार पर टीका लगवाते रहना चाहिए।
        • पोस्ट बाईट अवस्था में ०,३,७,१४,२८ एवं ९० दिनों पर टीकाकरण करवाना चाहिए।

        ४) पी पी आर (PPR):

        इस बीमारी को बकरी प्लेग,काटा, बकरी का प्रतिश्यायी ज्वर, छद्म पोकनी रोग जैसे अन्य नामो से भी जाना जाता है। यह बकरियों और भेड़ो की अत्यंत तीव्र संक्रामक बीमारी है जिसमे ज्वर,परगलित मुखपाक,अन्त्रर्काप,निमोनिया, आखों और नाकों से पीप युक्त श्राव जैसे लक्षण पाये जाते है और अंत में पशु मर जाता है

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        • यह बीमारी छोटे जुगाली करने वाले मवेशियों में अत्यधिक संक्रामक प्रकार की होती है।
        • यह एक विषाणु जनित रोग है, जो की Moribillivirus द्वारा फैलता है।
        • यह बीमारी संक्रमित पशुओ के संपर्क में आने से एवं संक्रमित खाद्य पदार्थो के सेवन से फैलिती है।
        • इस बीमारी का ऊष्मायन काल २-६ दिनों का होता है।
        • भेड़ो की अपेछा बकरियो में यह रोग ज्यादा पाया जाता है।
        • इस रोग के जीवाणु संक्रमित पशुओ के मलत्याग ,एवं समस्त स्रावों में पाए जाते है और रोग के प्रसार का कारण बनते है।
        • दूषित चारा ,पानी , नाद, दूध, फर्श, श्रमिको के कपड़ो तथा हाथों से यह रोग तुरंत फैलता है।
        • इस रोग से ग्रसित पशु में रोग के प्रमुख लक्षण जो उत्पन्न होते है वह है तीव्र बुखार का आना (१०४ F – १०५F ), अत्याधिक नासिका श्राव, पतले दस्त का होना, मुह के अन्दर की श्लेष्मा, जीभ, डेंटल पैड और ओठों पर घाव का पाया जाना, साथ ही शरीर में निर्जलीकरण का होना।
        • इस रोग का निदान पशु के रोग के लक्षणो के आधार पर एवं प्रयोगशाला में रक्त परीक्षण के द्वारा किया जा सकता है।
        • चूकी यह रोग विषाणु जनित है अतः इस रोग की कोई विशेष चिकित्सा उपलब्ध नहीं है। दस्त एवं श्वशन की समस्या का लक्षणो के आधार पर उपचार करते है, निर्जलीकरण को दूर करने के लिए शरीर में फ्लूड चढाते है।
        • इस रोग के बचाव के लिए पशुओ का समय पर टीकाकरण करवाना चाहिए।
        • टीकाकरण पहली बार ३ माह की अवस्था में किया जाता है जो की ३ साल के लिए प्रभावी होता है।

        प्रोटोजोआ जनित संक्रामक रोग

        पशुओ में प्रोटोजोआ जनित प्रमुख संक्रामक रोग निम्नलिखित प्रकारके होते है:

        १) सर्रा (Trypanosomiosis):

        यह एक संक्रामक बीमारी है जिसमे रुक रुक कर ज्वर आना,रक्ताल्पता,शरीर के आश्रित भागों में सूजन,आखों और नाकों से श्राव और अंत में बेचनी जैसे लक्षण पाये जाते है। वास्तव में सर्रा कोई बीमारी नहीं है बल्कि बिमारिओ का संकुल है जिसमे मृत्यु के रूप में, रुग्णता के रूप में और दुग्ध उत्पादन में कमी के रूप में अत्याधिक वित्तीय ह्रास होता है।

         

      • चित्र : रक्त धब्बा (Smear) में कारक परजीवी का प्रदर्शन

        • यह एक संक्रामक बीमारी है जो की सामान्यतः गाय, भैस ,घोडा, बकरी ,ऊट,सूकर में पाई जाती है।
        • यह बीमारी प्रोटोजोआ परिजीवी Trypanosoma evansi द्वारा होती है।
        • यह बीमारी टबेनस,स्टोमोक्सिस जैसी मक्खियो के काटने से फैलती है।
        • इस बीमारी का ऊष्मायन काल गायों और भैसों में ६ -१४ दिनों का होता है।
        • इस रोग से ग्रसित पशु में रोग के प्रमुख लक्षण जो उत्पन्न होते है वह है तीव्र बुखार का आना (१०४ ०F – १०५०F ), श्लेष्मल झिल्ली में रुधिरांको का बनना,गोल-गोल घूमना, कठोर सतह से सर को दबाना, रक्ताल्पता, भूख का कम या खत्म होना, चक्कर का आना,दूध उत्पादन का कम होना, शरीर के भार का कम होना।
        • इस रोग का निदान पशु के रोग के लक्षणो के आधार पर एवं प्रयोगशाला में रक्त परीक्षण के द्वारा सफलता पूर्वक किया जा सकता है।

        इस रोग के उपचार के लिए इन्ज. आईसोमेटामीडियम क्लोराइड @ १ mg/kg deep IM, or इन्ज. कुईनापाईरामीन @ ३ -५  mg/kg SC, or  इन्ज. डाईमिनाजीन @ ३.५ -७.० mg/kg, IM का प्रयोग कर सकते है, इसके साथ ही इन्ज. ओक्सीटेट्रासाइकिलिन @ १०-२० mg/Kg IV का भी प्रयोग कर सकते है, सहयोगात्मक उपचार के रूप में NSAIDs, Vitamin B complex, Iron preparation और Anistamin का प्रयोग लाभ दायक होता है।

        • निर्जलीकरण को दूर करने के लिए शरीर में फ्लूड चढाते है।
        • इस रोग का बचाव इनके संवाहको, मक्खियो की जनसंख्या को नियंत्रित कर के किया जा सकता है ।
        • यह एक तीव्र मृत्यु दर वाली बीमारी है जो की गर्म रक्त वाले लगभग सभी जानवरों में पाई जाती है।
        • यह एक विषाणु जनित रोग है, जो की Rhabdo virus द्वारा फैलता है।
        • इस रोग से ग्रसित पशु में पागलपन का दौरा आने लगता है।
        • यह रोग मनुष्यों में भी हो जाता है।
        • यह रोग विक्षिप्त एवं बावरे पशु के कटने से एवं संक्रमित लार के संपर्क में आने से फैलता है।
        • इस रोग से ग्रसित पशु का व्यवहार बदल जाता है, उसके अंदर किसी भी वास्तु या जानवर को काटने का गुण उत्पान हो जाता है, जानवर एकदम बेचैन सा रहता है,पशु जोर जोर से आवाजे निकालता है, पशु का निचला जबड़ा लटकता रहता है और जीभ बहार निकल आती है,लार अत्याधिक मात्र में गिरती है, बाद में पशु ना तो खाना खा पाता है और ना ही पानी पी पाता है, आगे चल कर पशु में पक्षाघात हो जाता है।
      • २) उष्णकटिबंधीय थिलेरिओसिस (Tropical Theileriosis):

        उष्णकटिबंधीय थिलेरिओसिस बाहरी एवं संकर नस्ल की गायो, बकरियो, भेड़ो की चिचिडी जनित  रक्तादिजन्तु प्रकार की बीमारी है जिसमे सतहीय लास्सिकापर्वो के आकार में वृद्धि, उच्च ज्वर, रक्ताल्पता,पीलिया और कमजोरी जैसे लक्षण पाये जाते है।

         

      •          चित्र: थिलेरिओसिस में लास्सिकापर्वो के आकार का बढ़ना

        • यह एक संक्रामक बीमारी है एवं बाहरी एवं संकर नस्ल की गायो, में अधिक मात्रा में पाई जाती है।
        • यह बीमारी प्रोटोजोआ परिजीवी Theileria annulata द्वारा होती है।
        • इसके अतरिक्त Theileria की अन्य दूसरी स्पीशीज भी बीमारी का कारक बनती है ।
        • यह बीमारी सामान्यतः गर्मियो और बरसात के मौसम में ज्यादा होती है।
        • यह बीमारी चिचिडी के काटने से फैलती है।
        • इस बीमारी का ऊष्मायन काल ५-१५ दिनों का होता है।
        • इस रोग से ग्रसित पशु में रोग के प्रमुख लक्षण जो उत्पन्न होते है वह है तीव्र बुखार का आना (१०५F – १०६F ), श्लेष्मल झिल्ली में रुधिरांको का बनना, लास्सिकापर्वो के आकार का बढ़ जाना,  रक्ताल्पता, भूख का कम या खत्म होना, चक्कर का आना,दूध उत्पादन का कम होना, शरीर के भार का कम होना,हृदय गति और श्वशन गति का बढ़ जाना।
        • इस रोग का निदान पशु के रोग के लक्षणो के आधार पर एवं प्रयोगशाला में रक्त परीक्षण के द्वारा सफलता पूर्वक किया जा सकता है।
        • रक्त परीक्षण करने पर हमे उसमे Koch’s blue bodies दिखती है।

        इस रोग के उपचार के लिए इन्ज. बुपारवाकुओन @ २.५ mg/kg deep IM, or  इन्ज.डाईमिनाजीन @ ३.५ -७.०, IM का प्रयोग कर सकते है, इसके साथ ही इन्ज. ओक्सीटेट्रासाइकिलिन @ १०-२०

        • mg/Kg IV का भी प्रयोग कर सकते है, सहयोगात्मक उपचार के रूप में NSAIDs,Vitamin B complex, Iron preparation और Anistamin का प्रयोग लाभ दायक होता है।
        • निर्जलीकरण को दूर करने के लिए शरीर में फ्लूड चढाते है।
        • इस रोग का बचाव इनके संवाहको, चिचिडी की संख्या को नियंत्रित कर के किया जा सकता है।
        • इस रोग से बचाव के लिए टीकाकरण भी एक विकल्प के रूप में उपलब्ध है।

        ३) लाल पानी ज्वर (Babesiosis):

        इस बीमारी को चिचिडी ज्वर, लाल ज्वर, तिल्ली ज्वर, जैसे अन्य नमो से भी जाना जाता है। यह गाय, भैस, घोडा, भेड़, बकरी, कुत्ता, सूकर और जंगली जानवरों में चिचिडी द्वारा संवाहित रक्तादिजन्तु प्रकार की बीमारी है जिसमे उच्च ज्वर, रक्ताल्पता, और मूत्र में हीमोग्लोबिन की उपस्थिति जैसे लक्षण पाये जाते है।

      •  
        • यह एक संक्रामक रक्तादिजन्तु प्रकार की बीमारी है।
        • यह बीमारी Babesia spps. के रक्तादिजन्तु से होती है।
        • इस बीमारी का ऊष्मायन काल ५-१० दिनों का होता है।
        • इस बीमारी का ऊष्मायन काल इस बात पर निर्भर करता है की कौन सी Babesia spps. रोग का कारक बनती है।
        • यह बीमारी बाहरी एवं संकर नस्ल की गायो, में अधिक मात्रा में पाई जाती है।
        • यह बीमारी चिचिडी के काटने से फैलती है।
        • इस रोग से ग्रसित पशु में रोग के प्रमुख लक्षण जो उत्पन्न होते है वह है तीव्र बुखार का आना (१०५F – १०६F ), श्लेष्मल झिल्ली में रुधिरांको का बनना,रक्ताल्पता, भूख का कम या खत्म होना, दूध उत्पादन का कम होना, शरीर के भार का कम होना, कठनाई युक्त श्वसन, कॉफ़ी के रंग का पेशाब होना,हृदय गति और श्वशन गति का बढ़ जाना। ।
        • इस रोग का निदान पशु के रोग के लक्षणो के आधार पर एवं प्रयोगशाला में रक्त परीक्षण के द्वारा सफलता पूर्वक किया जा सकता है।
        • इस रोग के उपचार के लिए इन्ज. डाईमिनाजीन @ ३.५ -७.० mg/kg, IM का प्रयोग कर सकते है, इन्ज. इमिडोकार्ब डाईप्रोपीयोनेट @ १-२ mg/kg, IM का भी प्रयोग कर सकते है, सहयोगात्मक उपचार के रूप में NSAIDs , Vitamin B complex, Iron preparation और Anistamin का प्रयोग लाभ दायक होता है।
        • निर्जलीकरण को दूर करने के लिए शरीर में फ्लूड चढाते है।
        • अत्याधिक रूप में रोग से ग्रसित पशु में रक्त का आधान भी कर सकते है।
        • इस रोग का बचाव इनके संवाहको, चिचिडी की संख्या को नियंत्रित कर के किया जा सकता है।
        • इस रोग से बचाव के लिए टीकाकरण भी एक विकल्प के रूप में उपलब्ध है।

        ४) ऐनाप्लासमोसिस (Anaplasmosis ):

      •  

        ऐनाप्लासमोसिस एक संक्रामक बीमारी है जिसमे शारीर में कमजोरी,रक्ताल्पता और पीलिया जैसे लक्षण पाये जाते है।

  • ऐनाप्लासमोसिस नमक बीमारी Anaplasma spps. नामक रिकेटसिअल परजीवी द्वारा होता है।
  • यह परजीवी अविकल्पी आंतररक्‍ताण्‍विक प्रकार का होता है।
  • यह परजीवी जुगाली करने वाले जानवरों को प्रभावित करता है।
  • गायों में ऐनाप्लासमोसिस नमक बीमारी पूरे विश्व में पाई जाती है।
  • यह बीमारी जैविकीय और यांत्रिक वेक्टर द्वारा फैलाई जाती है।
  • ऐनाप्लासमा परिपक्व रक्त कोशिकाओ को प्रभावित करता है।
  • इस बीमारी का ऊष्मायन काल ३-४ सप्ताह का होता है जब संक्रमण चिचिडी द्वारा होता है,परन्तु येही ऊष्मायन काल २-५ सप्ताह का होता है जब संक्रमण रक्त के संरोपण द्वारा होता है।
  • इस रोग से ग्रसित पशु में रोग के प्रमुख लक्षण जो उत्पन्न होते है वह है शरीर के तापक्रम का बढ़ना, सतत या रुक-रुक कर आने वाला ज्वर, भूख का कम होना, कमजोरी ,पीलिया, प्रजनन क्षमता में कमी, गर्भस्थ गाय का गर्भपात हो जाना।
  • इस रोग का निदान पशु के रोग के लक्षणो के आधार पर एवं प्रयोगशाला में रक्त परीक्षण के द्वारा सफलता पूर्वक किया जा सकता है।
  • इस रोग के उपचार के लिए इन्ज. ओक्सीटेट्रासाइकिलिन @ १०-२० mg/Kg IV, or इन्ज. इमिडोकार्ब डाईप्रोपीयोनेट @ ३ mg/kg, IM का भी प्रयोग कर सकते है, सहयोगात्मक उपचार के रूप में NSAIDs, Vitamin B complex, Iron preparation, Liver tonics और  Blood transfusions का प्रयोग लाभ दायक होता है।
  • इस रोग का बचाव इनके संवाहको, चिचिडी की संख्या को नियंत्रित कर के किया जा सकता है। साथ ही रोग से बचाव के लिए टीकाकरण भी एक विकल्प के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है।

 

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