औषधीय पौधे

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पशुपालक भाईओं इन औषधीयों का प्रयोग आप अपने शरीर पर और अपने पशूओं पर कर सकते हैं।

औषधीय पौधे

शतावर

शतावरी अति प्रसिद्ध, पहाड़ी और मैदानी दोनों क्षेत्रों में पैदा लेने वाली, लता जाति की पौधा है। बलकारी पदार्थों में इसकी पहचान होती है। इसकी लताएं झाड़ी के उपर बहुत ऊंची चढ़ जाती है। उसमें थोड़े-थोड़े अन्तर पर तिक्ष्ण कांटे रहते हैं। इसके पत्ते बहुत महीन, सोया के पत्तों के समान होते हैं। इसके फूल सफेद तथा छोटे होते हैं। इसका बीज काला गोल होता है। इसके जड़ में सैकड़ों जड़ होती है। इन जड़ों के उपर पतली छिलका होती है। इसके छिलके को हटा देने पर उजला दुधिया गुद्देदार पदार्थ मिलता है। जिसको सुखाने के बाद शतावर प्राप्त होती है।

गुण प्रभाव : यह पचने में भारी, प्रभाव में शीतल औषधि है। यह कडव़ी एवं मधुर है। यह रसायन गुण सम्पन्न औषधि है। यह बुद्धिवर्धक, अग्नि दीपक, पौष्टिक तथा बलकारक है। नेत्र रोगों में हितकारी है। यह अतिसार पेचीस को मिटाता है। यह वात रक्त की भी अच्छी औषधि है। इन गुणों को प्राप्त करने के लिए, इसका चूर्ण 2 से 3 ग्राम प्रतिदिन या 5 से 10 ग्राम हराद्रव्य कुंचकर एक पाव दुध में उबालकर खाना चाहिए। अतिसार, गुल्म, पेचीस में इसे अकेले खानी चाहिए। माता या पशु के स्तन में, दुध को बढ़ाने के लिए इसका प्रयोग ग्रामवासी सफलतापूर्वक करते हैं। इसके लिए इसकी एक जड़ को छीलकर, पीसकर देते हैं या उसे दूध में उबालकर खिलाते हैं। यह कफ नाषक, कड़वी तथा रसायन गुण की प्राप्ति के लिए अन्य दवाओं में भी पड़ती है। यह हृदय के लिए हितकारी तथा तीनों दोषों का शमन करने वाली है। हकीम लोग इसे पेशाब की बीमारी एवं यकृत की बीमारी में भी प्रयोग करते हैं तथा लाभ लेते हैं। शतावरी के अंकुरों की सब्जी भी कुछ लोग पेट की बीमारी में खाते हैं और फायदा होता है। समस्त शरीर में जलन, अजीर्ण एवं दस्त में इसे मधु के साथ देने पर लाभ अधिक होता है। वात रोग में इसे शहद और दूध तथा पीपल के चूर्ण के साथ देने से अधिक लाभ होता है। वेदनायुक्त अंगों पर इसका लेप किया जाता है। बारीक पीसे हुए चूर्ण या सील पर पीसे हुए शतावरी का पेय, दुध के साथ बनाकर मिश्री और जीरा मिलाकर देने से ज्वर सहित सभी रोग, जिनमें कमजोरी होती है, यह प्रयोग मिटा देती है। अन्य दवाओं के साथ भी इसे दिया जाता है। इसका असर कुछ ही दिनों में दिखाई पड़ने लगता है। शरीर में लाली एवं फूर्ति आ जाती है। पथरी के दर्द को मिटाने के लिए इसे पीस कर गुड़ के साथ दिया जाता है। दुध के साथ इसे पीस कर थोड़ा पीपल और शहद मिलाकर खाने से गर्भाशय का दर्द मिटता है। इसी प्रयोग से स्त्री पुरुषों की कामवासना तीव्र हो जाती है। इससे अनिद्रा भी दूर होती है।

मात्रा : गीली हालत में इसकी मात्रा 10 से 15 ग्राम प्रतिदिन है। सुखी शतावरी का चुर्ण 3 से 6 ग्राम तक प्रतिदिन देना चाहिए। आयुर्वेद में इसका प्रयोग आक्षेप निवारक औषधि के रूप में भी किया जाता है। सूखी खांसी में इसे वाकस के पत्ते एवं मिश्री के साथ दिया जाता है। इससे सिद्ध तैल की मालिस से वात व्याधि मिटती है। गोखरू के साथ इसका प्रयोग समस्त मुत्र रोग को नष्ट करता है।

शतावरी से सिद्ध घृत रक्तातिसार को नष्ट करता है। शराब पीने से होने वाले मानसिक बिमारियों को मिटाने के लिए इसको मुलहठी के चूर्ण के साथ दिया जाता है। इसके रस में शहद मिलाकर पिलाने में रक्त प्रदर मिटता है। अपस्मार रोगी को 10 ग्राम शतावरी प्रतिदिन दुध के साथ दिया जाय तो कुछ दिनों में वह रोग मुक्त हो जाता है।

आर्थिक दृष्टि से इसकी खेती बहुत लाभदायी है। इसकी बिक्री सम्पूर्ण भारत सहित, विश्व के बाजार में भी है। इसका उत्पादन चाहे जितना किया जाय बिक जायेगा। इसको सुखाने की क्रिया सिखना पड़ता है, नहीं तो यह तुरन्त सड़ जाता है। प्रशोधन के लिए इसे थोड़ा उबाला जाता है। उबलने के बाद उसके उपर की छिलका निकाल दी जाती है, तब धूप में सुखा लिया जाता है। यह रोजगार परक भी है। इसके एक पौधा में 1 से 5 किलो तक शतावरी मिलती है। थोड़े से खेत में भी इसके खेती से अधिक लाभ कमाया जासकता है।

भूमि आँवला

यह अति उपयोगी औषधि है। यह सम्पूर्ण भारत में उत्पन्न होती है। इसका पौधा 6 इंच से लेकर 2 से 3 फीट तक देखने में आती है। इसका शक्ल आँवला से मिलता-जुलता है। फर्क यह है कि आँवला का पेड़ बड़ा होता है, यह छोटा होता है। इसकी और जाति होती है, जिसकी पहचान अभी नहीं हुई है। वह औषधिय कार्य में व्यवहृत नहीं होती। फर्क इतना होता है कि भूमि आमला तिक्त रस की है अन्य काषाय रस की होती है। भूमि आंवला आज दुर्लभ होती जा रही है। भारत सरकार इसकी खेती के लिए आज के दिन प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। यह सर्व परिचित पौधा है।

गुण प्रयोग : यह मुत्रल है। इसका व्यवहार सुरक्षित मुत्रल औषधि के रूप में किया जा सकता है। मुत्रल औषधियाँ संकोचक होती है। यह वैसा लक्षण नहीं पैदा करती। यह धातु परिवर्तक एवं यकृत की विनिमय क्रिया को सुधारने वाली होने के नाते पौष्टिक भी है तथा सभी अंग-प्रत्यंगों को मजबूती देती है। यह जनन-इन्द्रिय एवं मुत्रेन्द्रिय संबंधी सभी रोगों को मिटाने की क्षमता रखता है। यह सड़न को मिटाता है तथा घाव को भरता है। इसके ताजे पौधों का काढ़ा पुरानी पेचिस के लिए बहुत उपयोगी है। यह जीर्ण ज्वर जो अक्सर उदर व्याधि के कारण होता है को दूर कर देता है। यह पाचन संस्थान के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग को नवीनता प्रदान करती है। इसके जड़ को पीसकर पिलाने से पीलिया दूर होता है। इसका अधिक प्रयोग दक्षिण भारतीय वैद्य करते हैं। स्त्रियों की जननेन्द्रिय संबंधित सभी रोगों पर इसका व्यवहार किया जाता है। प्रदर चाहे वह उजला, पीला, लाल कुछ भी हो यह ठीक करता है।

मात्रा : 2 से 3 ग्राम दो बार। इसके एक पौधा को पीसकर शर्बत के रूप में तैयार कर प्रतिदिन पीलिया के रोगी को दें। इसका काढ़ा बनाकर जीर्ण ज्वर पर दें। अन्य सभी कार्य के लिए इसका चूर्ण व्यवहार करें। व्यापारिक दृष्टि से यह पौधा काफी उपयोगी है। इसका खरीददार भारत सरकार है। विश्व के बाजार में इसकी मांग है। हिपेटाइटीस एवं एड्स पर इसका व्यापक प्रयोग चल रहा है तथा सफलताओं की उम्मीद बढ़ रही है।

काकमाची

यह अति प्रसिद्ध मकोय जाति का पौधा है। क्षेत्रीय लोग इसे भटकोया कहते हैं। इसका पौधा 3 से 4 फिट तक बड़ा होता है। इसमें छोटे-छोटे फल लगते हैं। पकने पर लाल या काली हो जाती है। जिसको बच्चे बड़े चाव से खाते हैं। कहीं-कहीं फुटका नाम से भी प्रचलित है।

गुण प्रभाव – यह अति दिव्य गुणकारी औषधि है। प्राचीन काल से ही गाँव के लागे इसे यकृत प्लीहा के रोगां में व्यवहृत करते आ रहे हैं। शरीर के किसी भी भाग में सुजन क्यों न हो। वह सुजन यकृत एवं प्लीहा के विनिमय क्रिया के कमजोरी के कारण ही क्यों न हो काकमाची के 25 से 50 ग्राम पौधे का काढ़ा प्रतिदिन पीने से सूजन उतर जाता है। सुजन से संबंधित रोग मिट जाते हैं। रोगी प्रसन्न हो जाता है। यह पोषक तत्वों से भी भरपूर है। कभी-कभी पोषक खनिज की कमी के कारण भी सुजन हो जाता है। यह उस कारण को भी मिटा देता है। यह तिक्त, कटु, काषाय गुण सम्पन्न औषधि है। इसका प्रयोग किसी भी प्रकार के शरीर से होने वाले क्षय में किया जाता है। यह धातु परिवर्तक है। अतः इसका लगातार सेवन से रक्त में होने वाले लगभग प्रत्येक बिमारी में लाभ करता है। मुत्रल गुण होने तथा हृदय के लिए हितकारी होने के कारण इसे हृदय दौर्वल्य में भी दिया जाता है। यह चर्म रोग की अति उत्तम औषधि है। सभी प्रकार के बुखार की यह दवा है। यह अतिसार को भी मिटाता है। कभी-कभी देखा जाता है कि पेचीस के साथ-साथ हाथ-पांव या आंख-मुंह फुलने लगता है। ऐसी स्थिति में इसका काढ़ा काफी लाभदायी होता है। प्राणरक्षक होता है। कुत्ते के विष को यह नष्ट कर देता है। अन्य विष पर भी इसका प्रभाव उत्तम विषनाशक के रूप में अनुभव किया गया है। आँख के रोशनी को सुधारता है। बवासीर या किसी भी भाग से होने वाले रक्त स्त्राव को यह मिटा देता हैं। आमरस का पाचन करता है।

मात्रा : इसके 25 से 50 ग्राम पंचांग का काढा़ पिलाया जाता है। इसका रस 10 ग्राम तक मधु या गुड़ के साथ दिया जाता है। आर्थिक दृष्टि से इसकी खेती उपयोगी है। इसे भारत सरकार सहित लगभग सभी औषधि उद्योग वाले खरीदते हैं।

अकरकरा

यह छुप जाति की औषधि है। वर्षा ऋतु के आरम्भ में यह उगती है। यदि नमी बनी रहे तो यह सालों रहती है। इसकी डाली रुयेदार होती है। डाली के उपर गोल गुच्छेदार छत्री के आकार वाला पीले रंग का फूल आता है। इसकी जड़ 3 से 4 इंच तक लम्बी और आधी इंच तक मोटी होती है। उसे सुखाकर या गिला ही व्यवहार में लिया जाता है।

गुण प्रभाव : यह गरम औषधि मानी जाती है। फिर भी बलकारी, सुजन एवं जुकाम के दूर करने वाली है। स्नायुरोग अर्थात् ज्ञान तंतुओं पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। जिसके फलस्वरूप यह पक्षाघात, मुंह का टेढ़ापन, गृध्रसी, संधिवात, सुन्यवात, वात जनित मस्तिष्क रोग, पुट्ठे का दर्द, कुबड़ापन, गर्दन की अकड़न, जोड़ों के दर्द इत्यादि में इसे जैतुन के तेल के साथ लगाने से अत्यधिक लाभ होता है। तील तेल में इसको पका कर लगाया जाता है। इसके रस को दुखते हुए दांत के उपर रखने से दर्द दूर होता हैं। इसके चूर्ण को जीभ पर रखने से तोतलापन मिटता है। इसकी एक ग्राम चूर्ण लेने से पैखाना के रास्ते कफ निकल जाता है। इसके जड़ को चुसने से कण्ठ सुरिला हो जाता है। यह कामोत्तेजक औषध के रूप में मानी जाती है। विभिन्न काम बर्द्धक दवाओं के साथ इसे देने से काफी लाभ मिलता है। इसके रस में तेल पकाकर इन्द्रियों पर मालिस करने से कामशक्ति की वृद्धि होती है। मिरगी और अपस्मार में इसके एक पाव रस एक पाव मधु तथा एक पाव शुद्ध महुआ का शराब मिलाकर रख लें तथा एक से दो ग्राम प्रतिदिन सुबह शाम दें। अच्छा लाभ मिलता है। इसे गरम प्रकृति के लोगों को नहीं देना चाहिए। इसकी नियंत्रित मात्रा में उपयोग नहीं करने से पैखाना के रास्ते से खून आने लगता है। बहुत मरोड़ होती है और बहुत हानी हो सकती है।

मात्रा : इसका रस एक से 2 ग्राम प्रतिदिन। जड़ का चूर्ण 1 ग्राम तक प्रतिदिन अन्य औषधियां के साथ मिलाकर प्रयोग करने से लाभ होती है। वाह्य उपचार के लिए इसके मात्रा पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। आर्थिक दृष्टि से इसकी खेती बहुत लाभदायक है। इसका व्यवहार अनेकों वात कफ के रोगों में होता है। इसलिए इसकी बाजार में माँग अधिक रहती है। यह काफी महंगी बिकने वाली जड़ी है। इसे अधिक मात्रा में अरब से या खाड़ी के देशों से मंगाया जाता है। झारखण्ड में इसकी उपज काफी हो सकती है।

गोखरु

यह वर्षा ऋतु में उत्पन्न होती है। यह जमीन के उपर छत्ते की तरह फैली हुई होती है। इनके पत्ते चने के पत्ते की तरह मगर उससे कुछ बड़े होते हैं। इसके फुल पीले रंग की और फल कांटेदार होते हैं। इसके सारे पौधे रसदार होते हैं।

गुण प्रभाव : इसकी जड़ तथा फल शीतल होता है। यह पौष्टिक एवं कामोद्दीपक होता है। इसका प्रयोग रसायन गुण प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यह पचने में हल्का होने के कारण भूख को बढ़ाता है। मुत्रल होने के कारण यह पथरी को घुलाकर निकाल देता है। इसका प्रयोग प्रमेह, श्वास, खाँसी, हृदय रोग, बवासीर, रक्त दोष, कुष्ठ एवं त्रिदोष को नष्ट करता है । यह सभी संस्थानों को बल देता है। सभी इन्द्रियों के लिए पौष्टिक है। एक ग्राम तील एवं एक ग्राम गोखरु प्रतिदिन चूर्ण करके खाने से वीर्य के क्षय से होने वाले नपुंसकता दूर होती है। गर्भाशय के दोष को मिटाने के लिए भी इसका इसी तरह प्रयोग किया जा सकता है।

सेवन विधि एवं मात्रा : इसकी एक ग्राम से अधिक की मात्रा प्रतिदिन नहीं लेनी चाहिए। मुत्रल होने से अधिक खाने पर गुर्दों को हानि होती है। सभी बीमारियों में अकेले या इसके साथ अन्य औषधियों को मिलाकर खिलाना चाहिए। व्यवसायिक स्तर पर इसकी माँग सम्पूर्ण भारत सहित विश्व है। इसका प्रयोग शीतल गुण सम्पन्न पेय पदार्थ तैयारकरने में भी होता है।

वृश्चिकाली

यह एक वर्षायु पौधा है। कभी-कभी आर्द्र भूमि पर यह कुछ वर्षों तक हरी रहती है। यह बरसात में उगती है। इसका पौधा 2 फीट से 5 फीट तक ऊँचा हो जाता है। इसके डंठल कोमल होते हैं। पत्ते बड़े-बड़े होते हैं। फुल गुलाबी होता है। इसमें कोल बीज होते हैं। जो दो हुक वाले बिच्छु के डंक के जैसे होते हैं तथा बहुत नुकिले होते हैं। कहीं-कहीं इसका नाम कौआ ठोठी भी है। इसके जड़ को शनि ग्रह दोश में बांधने के काम में भी लिया जाता है।

गुण प्रयोग : इसकी जड़ धातु परिवर्तक औषधि के रूप में व्यवहृत होता है। यह वैसे ज्वर की अच्छी दवा है जिसमें हाथ, पैर तथा पेट गर्म हो, बुखार हो। यह गीनीया कृमि की भी दवा है। पैर और हाथों में दर्द हो तो भी यह उपयोगी है। यह रक्त शोधक है। शरीर की खुजली मिटाने के लिए इसका काढ़ा व्यवहृत होता है। गलित कुष्ठ में भी इसका व्यवहार किया जाता है। हृदय रोगों की विभिन्न अवस्थाओं में भी इसका व्यवहार होता है। इसके बीज को पानी में पीसकर सिर पर लेप करने से केश उगता है। इसके अनेकों उपयोग चिकित्सा जगत में होता है। इसलिए इसकी बाजार में माँग है तथा अर्थोपार्जन का साधन इसकी खेती हो सकती है।

सेवन विधि और मात्रा : इसके जड़ का चूर्ण एक से दो ग्राम, पत्ता का रस 2 से 3 ग्राम, बीज का चूर्ण 1 से 2 ग्राम प्रतिदिन।

भृंगराज

इसे भाँगरा भी कहते हैं। इसके पौधे बरसात में सभी जगह पैदा होते हैं। नमी वाले जमीन में यह बारहो मास रहता है। आधी से दो फीट तक जमीन पर फैला या कुछ उठा हुआ पौधा होता है। इसकी शाखायें हरी, कुछ कालिमा लिए होती है। पत्ते एक से तीन इंच तक लम्बे होते हैं। इसके संबंध में अनेको लोग जानते हैं। इसकी सफेद, पीली तथा काली जातियाँ है। तीनों में से सफेद एवं पीली जाति का पौधा गुण में लगभग बराबर होती है। काली जाति के भाँगरा भी गुणवान है। परन्तु इसके मिलने में दुर्लभता है तथा रसायण बनाने के काम में आता है।

गुण-दोष प्रभाव : यह कडव़ा तथा गरम औषधि है। धातु परिवर्तक गुण इसमें पाया जाता है। अतएव यह बहुत उपयोगी, सर्व रोग नाशक औषधि बन जाता है। अनेकों प्रकार के विष जो या तो पर्यावरणीय हो या किसी तरह के आहार-विहार से संबद्ध हो, उसे यह शरीर से बाहर करता है। यह बालों के सौंदर्य को बढ़ा देता है। आँख, नाक, कान, मुँह के रोगों को मिटा देता है। नेत्रों की ज्योति बढ़ाने तथा बल, पुरुषार्थ एवं सभी रोगों से मुक्ति के लिए इसके बराबर आंवला एवं काला तिल एक साथ चूर्ण कर प्रतिदिन पाँच से दस ग्राम सेवन करने से गला के ऊपर के सभी अवयव तथा सभी इन्द्रियाँ मजबूत बनी रहती है। लगातार सेवन से अनेकों रोगों को यह मिटा देता है। यह आँतों की सुजन जिसे हर्निया कहते हैं। उसके लिए भी उपयोगी दवा है। खाँसी, दम्मा को ठीक करता है। हृदय रोग, खुजली, चर्म रोग को मिटाता है। गर्भिणी के गर्भाशय में दर्द हो या गर्भपात होने की प्रवृति हो, तो गर्भपात रोक देता है। बच्चा होने के बाद गर्भाशय की किसी भी प्रकार की विकृति में इसका प्रयोग लाभकारी है। यह अग्निवर्द्धक तथा ज्वर नाशक है। यकृत प्लीहा के रोगों को यह मिटा देता है। इसके सेवन से सिर में होने वाले चक्कर घुमड़ी आराम हो जाता है। इसके रस में तेल पकाकर बालों के जड़ में लगाने से बाल मजबूत तथा काले होते हैं। इसके रस का भी लेप इस कार्य के लिए किया जा सकता है। यह शरीर के अग्नि को नियमित करता है। बालों को बढ़ाता है तथा दीर्घ आयु प्रदान करता है। जीवनीय शक्ति वर्द्धक होने के नाते सभी रोगों से रक्षा करता है। छोटे बच्चों के जुकाम को ठीक करने के लिए ग्रामीण लोग इसका व्यवहार करते हैं। इसके लिए इसके 2 से 4 बून्द रस एवं रस के दुगना मधु मिलाकर चटाया जाता है। जिससे बच्चों की सर्दी जुकाम ठीक हो जाती है तथा तन्दुरुस्ती भी बढ़ती है। बवासीर, उदर के रोग, यकृत की बीमारी को यह ठीक कर समस्त शरीर के लिए उपयोगी बन जाती है। भाँगरा को पीस कर बिच्छु के डंक पर लगाने से आराम आता है। दो चम्मच रस यदि पिला भी दिया जाय तो और जल्दी आराम आता है। अग्नि से जले हुए व्रण के उपर दवना मरवा, मेंहदी एवं भाँगरा को पीस कर लेप करने से जलन शान्त होता है तथा घाव ठीक होता है। चर्म का रंग प्राकृतिक हो जाता है। भाँगरे के रस में काली मीर्च मिलाकर लेने से कामला पाण्डु ;जौन्डीसद्ध रोग मिट जाता है। हब्बा-डब्बा जो एक प्रकार का निमोनिया है। उसमें इसके रस को मधु के साथ देने से लाभ होता है। व्यवहार विधि : इसको संग्रहण कर अच्छी तरह से सुखाकर कुट कर चाल लेना चाहिए। इसके चूर्ण को 2 ग्राम के लगभग देना चाहिए। इसको कुटकर निकाला गया रस 2 से 5 ग्राम गोलकी या मधु के साथ दिया जाता है। इसका सर्वरोग नासक योग इस प्रकार है : भांगरा 500 ग्राम, तील 500 ग्राम, मुण्डी 500 ग्राम, आंवला 500 ग्राम, मुलहठी 500 ग्राम, निर्गुन्डी का छाल या पत्ता 500 ग्राम, सबको कुट पीस कर चूर्ण बनाकर 5 ग्राम प्रतिदिन इसका सर्व रोग नासक योग के रूप में प्रयोग किया जाता है। व्यवसायिक स्तर पर यह काफी उपयोगी पौधा है। इसकी खेती से होने वाला लाभ अन्नादि के खेती से 4 गुना अधिक होता है। इसका बाजार व्यापक है।

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मुसली काली

इस वनस्पति का पौधा नव इंच से डेढ़ फीट तक ऊँची होती है। ताड़ के पत्तों के समान इसके पत्ते होते हैं। कन्द मुली के समान परन्तु काला पतला होता है। इसकी सफेद और काली दो जातियाँ है। यहाँ पर काली मुसली का वर्णन किया जायेगा। यह समस्त भारत वर्ष में होती है।

गुण प्रभाव : वीर्य वर्द्धक, कामाद्देपक, कफनाशक, रसायन, पटे के अफारे को दूर करने वाली, ज्वर निवारक है। क्षुधा वर्द्धक है। वजन को बढ़ाता है। बवासीर, दर्द, थकान, रक्त के रोगों को दूर करता है। कुछ लोगों ने इसे ठंढा, कुछ ने गर्म कहा है। परन्तु यह शीतल द्रव्यों में ही आता है। वीर्य क्षय को दूर करने के लिए इसका 5 ग्राम चूर्ण मिश्री के साथ या मधु के साथ खाने से वीर्य की कमी जन्य कठिनाइयाँ मिट जाती है। यह एक दिव्य रसायन औषधि है। यह दम्मा को कुछ दिन पान के रस के साथ सेवन करने पर ठीक करती है। पागल कुत्ते के काटने पर इसको पीपल के साथ लेने से कुत्ते के विष में लाभ होता हैं। यह शान्तिदायक और मुत्रल भी है। इसके व्यवहार से सभी प्रकार के स्नायविक रोगों का नाश होता है। इसके 2 ग्राम चूर्ण को प्रतिदिन दो बार कुछ दिनों तक लेने से बवासीर में आराम आता है। इतनी ही मात्रा में यह पाण्डु जौंडिस पर अच्छा काम करता है। पुराने अतिसार को बिल्व चूर्ण के साथ देने से मिटा देता है। यह मुत्रल होने से सूजन वाले रोगों को मिटाता है तथा हृदय के लिए हितकारी है। चर्म रोग एवं खुजली को मिटाने के लिए इसका गर्म लेप लगाया जाता है। यह समस्त शरीर को सुन्दर बनाता है।

सेवन विधि औैर मात्रा : इसके चूर्ण को अन्य औषधियां के साथ या अकेला व्यवहार किया जाता है। इसके साथ गुड़, चीनी मिलाई जा सकती है। मात्रा 2 से 5 ग्राम प्रतिदिन देना चाहिए। कामोद्दीपन के लिए 5 ग्राम चूर्ण और 5 ग्राम मिश्री मिलाकर दूध के साथ देना चाहिए। व्यवसायिक दृष्टि से यह आज के दिन दुर्लभ होते जा रहा है। इसकी अच्छी मागं है। इसकी खेती काफी लाभप्रद है। इसकी खेती करने से अन्न के फसल से ज्यादा लाभप्रद है। अतः इसकी खेती लाभदायी है।

पारसीक अजवायन

यह अजवायन के गंध की परन्तु अजवायन से भिन्न पौधा हैं। इसका नामकरण ठीक नहीं है। फिर भी यह औषधीय गुण रखने के कारण चिकित्सा जगत में प्रचलित है। अपने लैटिन नाम के अनुरूप भी यह है या नहीं इसमें भी संदेह है। परन्तु व्यवहार में आने के कारण नाम चाहे जो भी है। यह उपयोगी औषधि बन जाती है। इसकी पूर्ण पहचान अभी नहीं है। परन्तु जिस अजवायन की चर्चा मैं कर रहा हूँ उसमें वे सारे गुण है जो पारसीक अजवायन में है। यह कई प्रकार की होती है। परन्तु यह जाति बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश में यत्र-तत्र मिलती है। अतः इसका गुण वर्णन नीचे दिया जा रहा है।

गुण प्रभाव : यह अजवायन थोडी़ विषैली है तथा मदकारक है। इसे गरम औषधियां में गिना गया है। नींद में चलना, मन की कमजोरी, पागलपन या पागलन जैसी क्रिया, मनोविश्रांति, स्वप्न अधिक देखना, डरना, चिल्लाना इत्यादि मन के रोगों में इसका व्यवहार अति सफलता पूर्वक होता है। इसके लिए सर्पगन्धा 10 ग्राम खुरासानी अजवायन 10 ग्राम जटामशी 10 ग्राम, वच 10 ग्राम एवं भाँगरा सत्व 40 ग्राम तीनों को कुट कर चूर्ण बनाकर भाँगरा के रस से आधी ग्राम की गोली बना लें। इसे सुबह सायं देवें। मन के लगभग सभी रोगों पर यह अति उत्तम कार्य करता है। सर दर्द तथा स्नायविक आक्षेप जन्य बिमारी भी इससे मिटती है। मात्रा 1 ग्राम प्रतिदिन चूर्ण बनाकर व्यवसायिक दृष्टि से इसका उत्पादन बहुत अनिवार्य है। यह विदेश से आता है। इसकी मांग अन्य औषधि तथा क्षाराभ बनाने वाली कम्पनियाँ करती है। इसको बेच कर अच्छी आमदनी की जा सकती है।

धतुरा

समस्त भारत में मिलने वाले इस पौधा को सभी लोग जानते हैं। शिवजी के ऊपर यह समर्पित होता है। इसके उजले, पीले एवं काले तीन भेद हैं। तीनों के गुण में समानता है। परन्तु तंत्र क्रिया एवं रसायन क्रिया में काला अत्यधिक प्रयुक्त होता है। इसके पीले फुल वाले पौधे कठिनाई से मिलते हैं। चिकित्सा की दृष्टि से सभी धतुरा एक समान गुणकारी होता है। इसके पत्ते जड़ सभी का अलग-अलग व्यवहार होता है।

गुण एवं प्रभाव : इसके पत्ते, बीज एवं जड़ में धतुरीन नामक एक विषैली क्षाराभ पायी जाती है। इसका समस्त अंग-प्रत्यंग मदकारी जहर के रूप में जाना जाता है। बहुत कम ही मात्रा में इसका प्रभाव शरीर पर होने लगता हैं। इसके पत्तों की धुंआ पीने से श्वास रोग में आराम मिलता है। सुखा बीज शोधित करके दम्मा खांसी में प्रयोग करने पर लाभदायी होता है। परन्तु इसकी मात्रा बहुत ही कम दी जाती है। बीज को दुध में उबालकर सुखाकर पुनः गोमुत्र में फुलाकर दो से तीन बार सुखा कर प्रयोग करने की विधि से प्रयोग करना चाहिए। आमबात के दर्द में पत्तों में थाडे़ अंडी का तेल लगाकर गर्म कर बांधने से आराम मिलता है। इसके ताजे रस को कंठमाला की गिल्टी पर दर्द दूर करने के लिए लगाया जाता है। कान दर्द, गठिया एवं स्तन के सुजन एवं दर्द में भी इसके रस का प्रयोग लाभदायी होता है। इसके जड़ का व्यवहार पागलपन एवं मीर्गी में होता है। इसके लिए इसके जड़ की एक ग्राम की मात्रा को पीसकर घी एवं दुध के साथ देनी चाहिए। घी की मात्रा कम से कम 5 ग्राम अवश्य होनी चाहिए। शोधित बीज घी में भूंजकर चौथाई रत्ती की मात्रा में घी के साथ खिलाने से नपुंसकता मिटती है। इसको जननेन्द्रियों पर लगाया भी जाता है। धतुरा का मद्यसार में बना सत्व, अफीम के विकल्प के रूप में प्रयुक्त होता है।

सेवन विधि और मात्रा : इसके चुर्ण को अन्य औषधियां के साथ या अकेला व्यवहार किया जाता है। इसके साथ गुड़, चीनी मिलाई जा सकती है। मात्रा 2 से 5 ग्राम प्रतिदिन देना चाहिए। कामोद्दीपन के लिए 5 ग्राम चूर्ण और 5 ग्राम मिश्री मिलाकर दूध के साथ देना चाहिए।

व्यवसायिक दृष्टि से यह आज के दिन दुर्लभ होते जा रहा है। इसकी अच्छी मांग है। इसकी खेती काफी लाभप्रद है। इसकी खेती करने से अन्न के फसल से ज्यादा लाभप्रद है। अतः इसकी खेती लाभदायी है।

अपराजिता

यह वहुवर्षजीवी लता जाति का पौधा है। सफेद एवं नीला फुल के अनुसार इसकी दो जातियां हैं। नीले फुल में भी एक इकहरे फुल वाले होते हैं। दुसरा दोहरे फुल वाले होते हैं। इसमें लम्बी फली होती है। जिसमें बीज होते हैं। सभी अंगों का औषधि में व्यवहार होता है। वेद ने इसे देवकुशुम कहा है।

गुण प्रभाव : इसकी सफदे जाति एवं नीली जाति दोनां के गुण अलग किये गये हैं परन्तु ऐसा देखने में आता है कि दोनों का गुण एक ही है। इसका स्वाद कटु तिक्त है। यह तीनों दोषों का शमन करती है। बुद्धिदायक है। आँख के रोगों के लिए हितकारी है। भूत-प्रेतादि की शान्ति करता है। सर्प विष का शमन करता है। यह ज्वर, पित्त के रोगों को भी दूर करता है। भ्रम उन्माद को मिटाता है। यह क्षय रोग जन्य ग्रंथियों को मिटाता है। यह कामोद्दीपक तथा पेचिस को दूर करता है। इसका बीज दस्तावर है। इसे भुज कर चूर्ण बनाकर व्यवहार करना चाहिए। इसकी मात्रा एक ग्राम तक प्रतिदिन है। कंठ के सभी रोगों के लिए इसके जड़ एवं शंखपुष्पी को कुट कर 2 ग्राम चूर्ण खिलाने से गला के सभी रोग दूर हो जाते हैं। सर्प विष में भी इसके जड़ को कुंठ के साथ कुटकर पीसकर देने से विष नष्ट होता है। सफेद अपराजिता के जड़ को दुध में पीसकर खिलाने से गिरता हुआ गर्भ रुक जाता है। इसका तासीर ठंढा है।

सेवन विधि एवं मात्रा : फुल 4 से 5 प्रतिदिन सुखे फुल का चूर्ण 1 से 2 ग्राम प्रतिदिन। जड़ का चूर्ण 1 से 2 ग्राम प्रतिदिन। बीज का चूर्ण 1 ग्राम प्रतिदिन, सभी रोगों के लिए। व्यवसायिक दृष्टि से यह लाभदायी है। इसके बीज की माँग औषध निर्माण करने वाली कम्पनियाँ करती है।

चकवर

यह सर्वत्र उपलब्ध है। झारखण्ड एवं बिहार, उत्तरप्रदेश में यह बहुतायत से मिलता है। इसके पत्ते सनायु से मिलते जुलते तथा फली भी मेथी के फली से मिलता जुलता होता है। इस पौधा को लगभग सभी लोग पहचानते हैं।

गुण प्रयोग : इसका बीज वात नाषक, खुजली, खाँसी, दम्मा, दाद और चर्म रोगां में बहुत उपयोगी है। इसकी पत्तियाँ सनायु के जैसा दस्तावर होती है। कासमर्द के जैसा खांसी श्वास में लाभदायी है। यह कुष्ठ नासक भी है। इसकी पत्तियों का काढ़ा देने से श्वास नलिका के जमे हुए कफ को निकालकर दम्मा में काफी आराम पहुँचाती है। मुँह के रास्ते एवं पैखाना के रास्ते कफ छंट जाता है। इसका सबसे अच्छा प्रयोग दाद एक्जीमा में होता हैं। इसके लिए इसकी पत्तियों को नीम के पत्तियों के साथ पिसकर छापते हैं। इसके पत्तों का रस सर्प विष में भी उपयोगी माना जाता है तथा असम के लोग इसका व्यवहार करते हैं। इसके पत्तों के काढ़े से कुल्ला करने से मुँह के छाले मिटते हैं। इसके और अडुसे के पत्तों को चुसने से सुखी खाँसी ठीक हो जाती है। इसके पत्तों के चूर्ण 2 ग्राम खाने से दस्त साफ आता है।

मात्रा : इसके बीज चूर्ण 1 से 2 ग्राम प्रतिदिन देना चाहिए। इसके पत्तां के चूर्ण 2 से 3 ग्राम प्रतिदिन देना चाहिए। व्यवसायिक दृष्टि से इसकी खेती उपयुक्त है। इसके पत्ते सनाय के पत्तां का विकल्प है। इसके बीज की माँग चर्म रोग की दवा बनाने वाली कम्पनियाँ करती है।

कालीजीरी

यह एक वर्ष जीवी पौधा है। समस्त हिन्दुस्तान में यह पाया जाता है। इनके पत्ते कटे हुए वारीक होते हैं। बरसात में इनकी मंजरीयां निकलती है। जो लम्बी होती है। मंजरियों में ही एक कली बनती है। जिसमें जीरे के समान काली जीरी निकलती है। नवीन बीज खाकी रंग का होता है। पुराना होने पर काला हो जाता है।

गुण-प्र्भाव : यह तिक्त रस की होती है। तैलिय होने के कारण यह अग्नये है। वात नाशक, कटु पौष्टिक तथा कृमि नाशक है। ज्वर को दूर करने वाली चर्म रोग नाशक मुत्रल तथा दुग्ध वर्द्धक है। यह औषधि अपने प्रभाव से लाभकारी होती है। कृमि को नष्ट करने के लिए एक ग्राम काली जीरी के साथ 2 ग्राम छोटी हर्रे भूनी हुई प्रतिदिन रात में देने से 15 दिनों में कृमि को नष्ट कर देती है। जीर्ण ज्वर पर भी इसका अच्छा उपयोग होता है। कुष्ठ, कच्छु इत्यादि में 2 ग्राम चूर्ण, खैर के छाल के काढ़ा के साथ दी जाती है। नील के रस में पीस कर मालिस करने से सभी प्रकार के चर्मरोग दूर होंगे। मधुमेह में यह उपयोगी है। यह कद्दु दाने को भी निकाल देती है। यह बवासीर की अच्छी दवा है। आधी कच्ची आधी भूनी काली जीरी 3 ग्राम प्रतिदिन सवेरे खिलाने से सभी प्रकार का बवासीर मिटता है। रांची के तरफ के मुंडा लोग इसका व्यवहार मलेरिया बुखार में करते हैं। पक्षाघात में इसको पीसकर रुग्न अंगों पर लेप करने से लाभ होता है। कालीजीरी एवं तिल 2 ग्राम प्रतिदिन सुबह देने से सभी प्रकार के बवासीर को ठीक करता है।

सावधानी : यह औषधि बहुत उग्र है। ज्यादा खाने से मेदे को हानि होती है। यह वमन एवं मरोड़ पैदा कर सकती है। यदि इसके खाने से कोई उपद्रव हो जाय तो गाय का दूध या ताजे आँवला का रस या आँवला का मुरब्बा देने से दूर हो जाता है।

मात्रा : एक से दो ग्राम प्रतिदिन गरम पानी से खाने के बाद। व्यवसायिक दृष्टि से इसकी खेती बहुत ही लाभदायक मानी जाती है। यह शीघ्र कार्यकारी दवा है। इसलिए इसकी बाजार में माँग रहती है। बाजार में इसकी अच्छी कीमत मिल जाती है। इसकी खेती काफी लाभदायी हो सकती है।

सफेद मसुली

यह अति प्राचीन काल से आयुर्वेद की दिव्य औषधियों के रूप में ख्याति प्राप्त जड़ी-बुटी है। यह लगभग सम्पूर्ण भारत में मिलता है। इसका पत्ता चौड़ा, थोड़ा लम्बा होता है। इसके जड़ में कन्द बैठता है। जिसे मुसली कहते हैं। इसमें बीज भी होता है। आजकल इसकी खेती होती है।

गुण-प्रभाव : इसका जड़ काफी पौष्टिक है। इसका प्रयागे वीर्य की कमी तथा वीर्य क्षय में किया जाता है। इसके प्रयोग से मज्जा तन्तु की वृद्धि होती है। परन्तु मेद नहीं बढ़ता है। यह लगभग सभी प्रकार की कमजोरी में लाभदायक है। यह स्नायविक दुर्बलता में भी लाभदायक है। पौष्टिक पदार्थ के रूप में सामान्य लोग भी इसका सेवन करते हैं। यह संतुलित भोजन का विकल्प है। जिस रोग में प्रोटीन हाँनिकारक होता है उस रोग में इसका प्रोटीन लाभदायी तथारोग निवारक होता है।

मात्रा : 5 से 10 ग्राम प्रतिदिन दुध या पानी से व्यवसायिक दृष्टि से इसकी खेती काफी लाभप्रद है। बाजार में 400 से 1000 रुपये किलो तक यह बिक जाती है। इसकी माँग सम्पूर्ण विष्व में है।

काशमर्द

इसका पौधा बरसात में बिहार, झारखण्ड तथा उत्तरी पूर्वी भारत के सभी प्रदेश में देखने को मिलता है। इसके कई भेद है। उजला, काला दो प्रकार का यह पाया जाता है। इसके पत्ते गोल बरछी के सामान उपर के तरफ मखमली तथा नीचे के बाजू कुछ खुरदरे होते हैं। इसके फुल गुच्छों में रहते हैं। इसकी काली जाति काफी लाभदायक होती है। काषमर्द को झारखण्ड के लोग बड़ा चकौड़ा कहते हैं।

गुण प्रभाव : यह अति उपयोगी दिव्य औषधियां में से एक है। इसके पत्तां का साग रुचिकारक, वीर्यवर्द्धक, खाँसी को नष्ट करने वाली होती है। विषनाशक, बवासीर तथा कंठ के रोगों के लिए उपयोगी है। यह त्रिदोष जन्य बुखार एवं पित्त के रोगों में लाभदायी है। इसका जड़ श्लीपद में लाभदायी है। इसके काली जाति के जड़ को गोलमीर्च के साथ पीस कर पिलाने से सर्प के विष को नष्ट करता है। इसका छाल, पत्ता, जड़ सभी दस्तावर है। बच्चों की कुकुर खांसी में यह अत्यधिक लाभदायी हैं। इसकी जड़ के छाल को चाय के साथ बीज के चूर्ण को शहद के साथ देने से मधुमेह में लाभ करता है। इसके बीज पत्ते और जड़ की छाल को गन्धक मिलाकर खाज-खुजली पर चुपरने से जादु के जैसा लाभ होता है। इस वनस्पति से कॉफी भी बहुत अच्छी तैयार होती है। इसकी विधि यह है कि : कसौजी के बीज एक सेर लेकर हल्की आंच में सेक लेना चाहिए। फिर उनको पीस कर उस चूर्ण में छोटी इलायची के बीज 10 ग्राम, कंकोल 5 ग्राम, जायफल 3 ग्राम, जावित्री 3 ग्राम, सौंफ 3 ग्राम, खसखस 3 ग्राम सबका चूर्ण मिला देना चाहिए। इसको कॉफी की तरह पीने से मन में उमंग उत्पन्न होता है। आलस्य मिटती है। शक्ति भी बढ़ती है। इसके काढ़ा से स्नान आम वात को दूर करता है। इसके बीज तथा मुली के बीज को पीसकर लेप करने से सफेद कुष्ट मिटता है। इसके पत्तों का काढ़ा हिचकी में लाभदायी है। मीर्गी में इसके सुखे फलों को पीसकर नास लेने यानी सुंघने से मीर्गी में बहुत लाभ होता है।

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मात्रा : जड़ के छाल का चूर्ण 3 से 5 ग्राम या पत्ता 2 से 3 ग्राम एवं फल का चूर्ण 1 से 2 ग्राम उपयोग करना चाहिए। व्यवसायिक दृष्टि से इसकी खेती काफी उपयोगी है। इसके बीज की माँग बहुत अधिक रहता है। क्षेत्रीय स्तर पर भी इसके पौधों की मांग होती है। इसके पौधे जहाँ पर रहते हैं। वहाँ पर विषैला सर्प नहीं आता। भूत-प्रेत से भी मुक्ति मिलती है। अतः इसकी खेती व्यापारिक दृष्टि से लाभदायी है। इसका बाजार व्यापक हो सकता है।

सीज

सम्पूर्ण भारत में मिलने वाली इस पौधा को मुठिया सीज के नाम से भी जाना जाता है। इसका पौधा 10 से 15 फिट तक ऊंचा होता है। इसकी डालियां लम्बे-लम्बे डंडों के रूप में रहती है। जिन पर बड़े तीक्ष्ण कांटे होते हैं। पत्ते, डाल तोड़ने पर दूध निकलता है।

गुण प्रभाव : थहूर अति उपयोगी औषधीय पौधा होते हुए इसका व्यवहार अधिक सावधानी पूर्वक किया जाता है। इसमें दस्तावर गुण अधिक है। थोड़ी सी असावधानी से अतिसार जैसा पैखाना होने लगता है। यह तिक्ष्ण, गरम औषधि है। यह अग्नि को बढ़ाता है। तीक्त रस की औषधि है। यह उदर शुल, अफारा, कफ, गुल्म, उमान्द, मुर्च्छा, कुष्ठ, बवासीर, सुजन, मेद रोग, पथरी, पाण्डु, शोक, ज्वर, प्लीहा और विष को दूर करता है। पुराने उदर रोग एवं कुष्ठ रोग में विरेचन देने के लिए एक योग है जो इस प्रकार है। लगभग 10 ग्राम काली मीर्च किसी बर्तन, शीशे या कप या प्लेट में रखकर उस गोल मीर्च को सीज के दुध से भिगावें, जब गोल मीर्च दुध में फूल जाय तो उसे धूप में सुखाकर रख लें। एक गोलकी खिलावें। यदि एक से पैखाना नहीं हो तो दूसरे दिन दो गोलकी दें। इससे अधिक नहीं दें। कुष्ठ एवं पुराने कब्ज वाले उदर रोग के लिए यह लाभदायक है। इसके दुध को चमड़े पर लगाने से छाला पड़ जाता है। पुराने आम वात एवं सन्धि शोध में इसके रस को नीम के बीजों के तेल के साथ मिलाकर मालिस किया जाता है। आक्षेपक खांसी में इसके पत्ते का रस 1/4 चम्मच से आधा चम्मच देते हैं। इसके कोमल पत्तों का साग आदिवासी तथा पहाड़ी लोग कफ के रोगों में प्रयोग करते हैं। पत्ते को गरम कर रस निकाल कर कान में यह डाला जाय तो कान का दर्द मिटता है। मांस पेशियों की सुजन पर इसके दुध लगाने से सुजन मिट जाती है।

मात्रा : इसके जड़ के चूर्ण की मात्रा 1/4 ग्राम से आधी ग्राम तक प्रतिदिन दें। रस की मात्रा 2 से 5 बूंद प्रतिदिन दें और दूध की मात्रा चौथाई बुन्द तक दे सकते हैं। पर सावधानी सहित।

व्यवसायिक दृष्टि से इस पौधा की खेती करके इससे वनस्पतियां के कीडे़ नाषक, दवा बनाने में उपयागे किया जा सकता है या पेस्टीसाइड बनाने वालों को बेचा जा सकता है। इसके दुध को सुखाकर उस चूर्ण को भी औषध या पेस्टीसाइड बनाने वालों के हाथ बेचा जा सकता है।

ब्राह्मी

इसको मंडूक पर्णी भी कहते हैं। ब्राह्मी के नाम से एक और पौधा है। जिसे जल नीम कहते हैं। दोनों की आकृति आपस में मिलती नहीं है। दोनों नम स्थान पर होने वाला छोटा पौधा है। जहां पानी मिलता है वहां पर सालों यह मिलता है। इसकी पतली-पतली डालियां जमीन पर फैलती है और डालियो के प्रत्येक जोड़ मिट्टी के सम्पर्क में आकर जड़युक्त हो जाता है। प्रत्येक जड़ पर पत्ते फल फूल आते हैं। इसके पत्ते अखण्ड गोलाकार, कंगुरेदार तथा एक से डेढ़ इंच तक लम्बे होते हैं। इस वनस्पति को मसलने से तीव्र गन्ध आती है। स्वाद कड़वा और तेज होता है। औषधि में इसका पत्ता जड़ सभी काम आता है।

गुण : यह दिव्य गुणकारी औषध है। यह तिक्त कटु मधुर औषध है। यह पौष्टिक तथा धातु परिवर्तक औषध है। इसलिए यह कायाकल्प करने की क्षमता रखती है। यह भूख बढ़ाती है। कण्ठ के स्वर को तथा स्मरण शक्ति को बढ़ाती है। यह सभी तरह के चर्म रोगों का नाष करती है। पाण्डु जौन्डीस अनिच्छित वीर्यस्त्राव, रक्त दोष को मिटाती है। कफ, चेचक, दम्मा, उन्माद में यह लाभदायक है। यह दुध को शुद्ध करती है। ब्राह्मी बल-वर्द्धक तथा रसायन है। इस औषधि के प्रयोग से जीवनी शक्ति आश्चर्यजनक तरीके से बढ़ती है। इसलिए यह किसी अन्य रोग को होने नहीं देती। यह सभी प्रकार के मन के रोगों को मिटाने में सक्षम है। स्मरण शक्ति को मजबूत करती है। यह सर दर्द को भी मिटाती है।

व्यवहार विधि : इसको जड़ सहित या अकेले पत्तां को लेकर छाया में सुखाना चाहिए। उसके बाद इसका चूर्ण बनाकर 2 ग्राम से 5 ग्राम तक प्रतिदिन व्यवहार करने से उपर बताये गये किसी भी बीमारी को यह शान्त करता है। इसके ताजा पत्तियों का रस 2 से 4 चम्मच मधु मिलाकर खाने से भी लाभ मिलता है। 5 से 10 पत्ता प्रतिदिन चबाकर खाने से बहुत से रोगां से रक्षा करता है। व्यवसायिक स्तर : समस्त विश्व के लोग, इसके गुण से परिचित है। सभी जगह यह उत्पन्न नहीं होती। अतः इसकी खेती करके अच्छी कमाई की जा सकती है। इसमें से अनेकों तत्व एवं क्षाराभ भी निकाले जाते हैं। अतः इसका बाजार है। सम्पूर्ण विश्व के लोग इसके गुण से प्रभावित है।

जलनीम

इसकी क्षुप गीली तथा तर जमीन में पैदा होती है। सम्पूर्ण भारत में जल के आस-पास यह पाई जाती है। बंगाल के लोग इसका साग खाते हैं। संथाल परगना में इसको जेम्हा घास के रूप में जानते हैं। इसका क्षुप मंडुक पर्णी से छोटा तथा सघन होता है। पत्ते मोटे तथा पतले होते हैं। कुछ लम्बाई लिए हुए होते हैं। इसके फुल रक्त के समान लाल होता है। इसका स्वाद कड़वा होता है।

दोष और प्रभाव : यह शीतल औषधि है। कब्ज को मिटाती है। पचने में हल्की है। बुद्धिवर्द्धक है। किसी भी प्रकार के अरिष्ट का नाश करती है। रसायन गुण सम्पन्न है। स्वर को उत्तम करने वाली हैं। यह पेसाब से संबंधित सभी बिमारियों को भी मिटाती है। हृदय के रोगी को यह जीवन दान देती है। सुजन और ज्वर को भी मिटाती है। यह क्षय की भी अच्छी औषधि है। सभी कुष्ट रोगों को दूर करती है। मस्तिष्क पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। मज्जा तन्तुओं को बल देकर यह शान्ति प्रदान करती है। मीर्गी और हिस्टीरिया के रोग को यह ठीक कर देती है। यह अति उत्तम स्नायु पौष्टिक है। श्वास दम्मा में इसका व्यवहार किया जाता है। पूर्णतः पागलपन की अवस्था में भी इस जड़ी का सफल व्यवहार ग्रामीण लोग करते हैं। कुछ लोग इसको सांप के काटने के बाद रोगी को पिलाते हैं और लाभ की अनुभूति भी करते हैं।

व्यवहार विधि : इस औषधि को सग्रंह कर सुखाकर उसका चूर्ण बना ले 2 से 5 ग्राम प्रतिदिन इसके सवेन से उपरोक्त सभी रोगों में लाभ होता है। इसके 10 ग्राम पौधा को कुटकर 100 ग्राम पानी में उबालें जब 25 ग्राम रह जाय तब उसे छान कर प्रतिदिन पिलाने से भी सभी रोगों में लाभ मिल जाती है।

आर्थिक दृष्टि से इसकी खेती : इस औषधि की मागं विश्व व्यापी है। इसमें से कुछ रसायन तत्व निकाले जाते हैं। आयुर्वेद होमियापैथिक तथा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की फार्मेसी भी इससे दवा बनाते है। अतः इसकी खेती आर्थिक विकास में काफी सहायक हो सकती है।

चित्रक

यह वनस्पति सम्पूर्ण भारतवर्ष में पैदा होती है। इसकी खेती भी की जाती है। इसके पौधे वहु वर्षजीवी तथा हरे-भरे रहने वाले होते हैं। एक बार लगा देने पर इसके जड़ को छोड़कर काट लेने पर भी पुनः नया डंठल निकल जाता है। जड़ से कई पतली-पतली डालियाँ फुटती है जो चिकनी और हरे रंग की होती है। इसके फुल सफेद तथा फल में एक प्रकार का लसलसा पदार्थ हो जाता है। जो कपड़ों में सट जाता है। इसकी जड़ की छाल औषधि में काम आता है। परन्तु इसके डंठल पत्ते एवं बीज भी लाभदायी है।

गुण एवं प्रभाव : यह अग्निवर्द्धक है। पाचक अग्नि को नियमित तथा सतं ुलित करता है। भूख की वृद्धि करता है। अग्नि वर्द्धक होने के नाते यह चर्म रोगों की भी अच्छी दवा बन जाती है। मन्दाग्नी के साथ यदि पतला पैखाना हो तो इसके सेवन से ठीक हो जाता है। बवासीर पर इसका उपयोग किया जाता है तथा लाभप्रद है। समूचे शरीर की सुजन को मिटाने में इसका व्यवहार अन्य औषधियों के मिश्रण के रूप में होता है। षिरका में पीसकर नमक मिलाकर यदि गलित कुष्ट पर छापी जाय तो लाभकारी होता है। समस्त शरीर पर लगाने के लिए इसे शिरका एवं दुध के साथ पीसकर लेप करनी चाहिए। अकेला इसका उपयोग चर्म को जला देता है। इसके एक से दो पत्ते या थोड़ा डंठल पीस कर यदि कुछ घंटों के लिए चर्म पर छाप दी जाय तो फोड़ा उत्पन्न हो जाता है। गर्भिणी को इसका व्यवहार नहीं करना चाहिए। इसका टिंक्चर आधुनिक चिकित्सक अनेकों चर्म रोगों में व्यवहृत करते हैं तथा खाने के काम में भी लेते हैं।

आर्थिक दृष्टि से इसकी खेती काफी लाभप्रद है। इसका बाजार सम्पूर्ण देश विदेश है। इससे निकलने वाले क्षाराभ का प्रयोग हृदय रोग, अमाशय रोग तथा स्नायु रोगों में होता है। इसकी खेती आर्थिक दृष्टि से लाभदायी है। एकबार लगा देने से तथा कम पानी में भी यह हो जाता है।

मात्रा एवं सेवन विधि : चूर्ण 1 से 2 ग्राम। काढा़ 10 से 20 ग्राम। रस आधा से एक ग्राम प्रतिदिन।

भारंगी

यह कुर्म पुराण द्वारा वर्णित आयुर्वेद की प्रसिद्ध औषधि है। इसके पत्ते बड़ी कनेर के पत्तों से मिलते जुलते होते हैं। फर्क यह होता है कि ये लम्बाई चौड़ाई मुटाई में बड़े होते हैं। जड़ से एक डाल 6 से 10 फीट एवं कहीं-कहीं इससे भी अधिक बढ़ते हैं तथा डाल के साथ छोटे डंठल एवं पत्तियाँ संलग्न रहती है।

गुण एवं प्रयोग : यह गठिया वात रोग एवं आम वात के लिए अति उपयोगी औषध है। इसके जड़ का काढा़ इसके लिए उपयोगी है। इसका व्यवहार श्वास काश एवं ज्वर में भी किया जाता है। फेफड़ों की सुजन तथा विकृति में इसका व्यवहार सफलतापूर्वक होता हैं इसके पत्तों का व्यवहार आम वात में होता है।

व्यवहार विधि एवं सावधानियाँ : ऐसा माना जाता है कि भारंगी के पौध विषज होते है। इसलिए इसके व्यवहार में सावधानी की आवश्यकता है।

मात्रा : चूर्ण चौथाई ग्राम प्रतिदिन से बढ़नी नहीं चाहिए तथा घी या दुध के साथ लेनी चाहिए। 2 से 5 ग्राम औषधि का काढ़ा बनाकर इसे लिया जा सकता है। अच्छा यह होगा की इसे दो बार लिया जाय। इसका विषज प्रभाव यदि महसूस हो तो इसे दुध में उबाल कर प्रयोग करना चाहिए।

व्यवसायिक स्तर पर इसका उत्पादन किया जाय तो इसकी बाजार में माँग है। इसकी खेती लाभदायी है। बहुत अधिक मात्रा में उत्पादन करने पर क्षाराभ बनाने वाले इसे खरीदेंगे। बहुत कम मात्रा मे स्थानीय बाजार में इसे बेचा जा सकता है।

पिप्पली

यह लता जाति का पौधा हैं। इसके पत्ते नागरवेल के समान होतें है। इसके लता में बहुत सी डालियाँ होती है। इसका फल काला और एक इंच से कुछ कम लम्बा होता है। इसके जड़ को पिप्पलामूल कहते हैं। यह झारखण्ड के बहुतेरे हिस्से में पाई जाती है। रांची के खुंटी के क्षेत्र में यह अधिकता से प्राप्त होती है। यह आयुर्वेद के अतिउपयोगी दिव्य जड़ी बुटियों में से एक है।

गुण एवं प्रभाव : यह अग्नि को बढा़ ने वाली, वीर्यवर्द्धक, कटु रस युक्त, वात एवं कफ के रोगां में इसका व्यवहार किया जाता है। श्वास, खांसी, उदर रोग, ज्वर, कुष्ठ, प्रमेह, गुल्म, क्षय, बवासीर, प्लीहा, शुल एवं आमवात को नष्ट करती है। इसको शहद के साथ लेने से मोटापा घटती है। कफ खांसी एवं ज्वर में शहद के साथ पीपल का चूर्ण आधी ग्राम तक लेनी चाहिए। शहद के साथ पीपल मुर्छा रोगों को मिटाता है। वात रोगों में इसे खिलाया भी जाता है और इसे तेल में पकाकर पके तेल को लगाया भी जाता है। पीपल एवं शोठ दोनों 500 ग्राम, पानी 2 किलो और तील तेल 500 ग्राम आगपर चढ़ावें। जब पानी जल जाय तथा पीपल भी जल जाय तो उस तेल को छान कर गृघ्रशी ;साइटीकाद्ध से प्रभावित अंगों में लेप करने से लाभ मिलता है। पलास की क्षार के जल की भावना पीपल में दें। उसमें से 1/4 ग्राम सुबह सायं लेने से उपर लिखे रोग मिट जाते हैं। इसके जड़ के 2 ग्राम चूर्ण को गुड़ के साथ खिलाने से आनिद्रा रोग का शमन होता है। इस दिव्य औषधि से कफ के 40 रोग तथा वात के 80 रोग अनुपान एवं व्यवहार भेद से ठीक किया जा सकता हैं।

आर्थिक लाभ : पीपल का बाजार सम्पूर्ण विश्व सहित भारत वर्ष है। इसका व्यवहार 80 प्रतिशत दवाआें में होता है। यह घरेलू मसाला एवं अचार के मसाला के रूप में भी व्यवहृत होता है। इसकी खेती काफी लाभप्रद है। बाजार में हमेशा महंगी बिकने वाली जड़ी-बुटी है। विदेशों में भी इसकी माँग है। हजारों टन पीपल यदि पैदा की जाय तो उसका खपत भारत वर्ष में ही हो जायेगा तथा अच्छी कीमत भी मिलेगी इसकी खेती से आर्थिक स्थिति सुधारी जा सकती है।

गन्ध प्रसारणी

यह लता जाति का पौधा है तथा समस्त भारत वर्ष में उपलब्ध है। इसके पत्ते पान के पत्तां के समान होते हैं। इसके तन्तु बहुत मजबूत होते हैं। इसे किसी गठ्ठर को बांधने के काम में भी ग्रामवासी लेते हैं। इसकी फुल बैंगनी रंग की, फल लम्बे गोल होते हैं। इसके पत्तो को मसलने पर दुर्गन्ध आता है।

गुण : आयुर्वेद के मत से यह औषधि कड़वी तथा बलदायक है। यह कामात्त्ेजेक तथा टुटी हुई हण्डी को जाडे़ ने वाली है। सौंदर्य प्रदान करती हैं। बवासीर में भी यह लाभदायी है। गठिया आम वात में इसका अधिक प्रयोग होता है। इसे खाने के काम में भी लिया जाता है तथा इससे तेल भी पकाया जाता है। जिसका वाह्य प्रयोग किया जाता है। रक्त दोष को मिटाने के लिए इसके जड़-धड़ पत्ता मिलित 25 ग्राम लें और उसे 200 ग्राम के लगभग पानी में उबालें, जब एक चौथाई अर्थात 50 ग्राम जल रह जाय, तब उसे छान कर पिला दें। प्रतिदिन दें। 15 से 20 दिन में ही लाभ मिल जाता है। इसके द्वारा तेल पकाने की विधि यह है कि 500 ग्राम गंध प्रसारनी का रस ले लें। 500 ग्राम पानी उसमें डाल दें। 500 ग्राम तिल का तेल उसमें मिलाकर आग पर चढ़ावें। पानी और रस जब जल जाय तब उसे छानकर रख लें तथा सन्धियों पर मालिस करें। यह तेल अति उपयोगी है। लगभग सभी प्रकार के दर्द में यह लाभदायी है। कान के दर्द में भी इसका प्रयोग होता है। तेल पाक की दूसरी विधि : एक किलो पत्ता एवं लत्तर या पंचांग लेकर उसे मोटा कुटे। फिर 4 किलो पानी डाल कर उबालें। जब एक किलो पानी बच जाय तब उसे छान लें तथा अवशिष्ट फेक दें। इस काढ़े में आधा किलो तिल या नारियल का तेल डालकर आग पर चढ़ावें पानी जब जल जाय, तेल मात्र रह जाय तो उसे उतार कर छान कर रख लें तथा व्यवहार करें। इसके पत्तों का रस 1/2 से एक चम्मच बच्चों के अतिसार में प्रयुक्त होता है।

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मात्रा : इसकी जड़ की मात्रा 2 से 5 ग्राम रस की या काढा़ की मात्रा बडां के लिए 5 ग्राम (प्रतिदिन) बच्चां के लिए 1 से 2 ग्राम प्रतिदिन। आर्थिक दृष्टि से इसकी खेती लाभकारी है। आशुगुणकारी होने के कारण इससे तले को पकाकर अपने क्षेत्र में या समस्त भारत वर्ष में यदि बेचा जाय तो अच्छी आमदनी हो सकती है। अतः इसकी खेती अर्थोपार्जन के लिए उपयोगी है।

कपूर कचरी

यह हल्दी से मिलता-जुलता पौधा होता है। इसके पत्ते लम्बे, कुछ चौड़े तथा भालाकार होते हैं। इसका जड़ हल्दी या अदरख के समान होता है तथा सुगन्धी युक्त होता है। इसके जड़ को उखाड़कर थोड़ा उबाल कर सुखाकर रखने से कीड़े नहीं लगते। यह हिमालय की तराई में मिलता है। झारखंड में भी यह कहीं-कहीं पाया जाता हैं पर यह दुर्लभ हो गया है। इसकी खेती झारखण्ड सहित समस्त भारतवर्ष में किया जा सकता है। इसका फुल बहुत ही सुन्दर तथा सुगन्धित होता है। इसका प्रयोग उत्तर पूर्वीय भारत के वनवासी भी करते रहे हैं।

गुण : यह गरम औषधि है। परन्तु प्रभाव से यह शीत वीर्य है। यह अग्नि वर्द्धक है। रस में यह तिक्त, कड़वी तथा कसैली है। इसलिए यह पचने में हल्की है तथा अग्निवर्द्धक गुण होने के कारण पाचक संस्थान को मजबूत बनाती है। इसका प्रयोग खांसी, श्वास, ज्वर, दर्द, हिचकी, वायुगोला, रक्त विकार, दुर्गन्ध, वमन इत्यादि रोगों में लाभदायक है। यह दिल, दिमाग एवं शरीर को बल प्रदान करती है। शान्तिदायक है। यह पुरूषार्थ की वृद्धि करती है। स्त्रियों के मासिक धर्म की गड़बड़ी को मिटा देती है। पेट के वायु को निकालती है। वमन और जी मिचलाना जैसे लक्षण के लिए भी उपयोगी है। कुछ आदिवासी लोग सर्प के काटने पर अन्य दवाओं के साथ इसका भी प्रयोग करते हैं।

व्यवहार विधि : सुखे हुए कन्द का चूर्ण एक ग्राम की मात्रा में पानी के साथ लिया जाता है। इसको अन्य औषधियों में भी मिलाया जा सकता है। जिस औषधि का स्वाद कटु एवं काषाय हो उसके साथ यदि मिलाया जाये तो उसका गुण बढ़ जायेगा। सुन्दर बनने के लिए तथा मुँह के कील मुहांसे इत्यादि से छुटकारा के लिए इसके चूर्ण का उबटन लगाया जाता है। मन के अनेकों रोगों जैसे मीर्गी, उदासी, तनाव मिटाने के लिए इसके दो तीन फुल प्रतिदिन सुखा या ताजा पानी के साथ पीसकर पिलाने से लाभ होता है। दो ग्राम का काढ़ा बनाकर पीने से भी लाभदायी होता है।

अन्य उपयोग : इसके फुल से सुगन्धि ;इत्रद्ध निकाल कर उससे भी अनेकां मानसिक, शारीरिक बिमारियां को मिटाया जा सकता है। इसके सुगन्ध से मन प्रशन्न तथा रोगरहित हो जाता है।

बाजार : अर्थापार्जन का यह अति उत्तम स्त्रोत बन सकता है। यदि इसकी खेती की जाय। इसके सुगन्धित इत्र की भी बिक्री काफी होगी।

बच

बच के छुप बहुत छोटे-छोटे होते हैं। यह पौधा नमी वाले भूमि में सालों ताजा रहती हैं। यह आसाम की ओर अधिक होती हैं परन्तु समस्त भारत में होता है। इसके पत्ते आधी इंच तक चौड़ी तथा जड़ के पास से ही निकलती है। इसके जड़ की मुटाई मध्यमा ऊंगली की तरह होती है। 1 फीट से 2 मीटर तक लम्बा 1 से 2 सेन्टीमीटर चौड़ा इसका पत्ता होता है। इसकी खेती हिमालय की तराई में लोग करते हैं। अधिकांश लोग इस पौधा से सुपरिचित है। इसकी उजली जाति का कन्द बच कहलाता है और काली जाति का कन्द घोड़बच कहलाता है।

गुण एवं प्रभाव : यह गरम औषध है। कटु, तीक्त एवं उग्र गधा वाली औषध है। यह साधारण पैखाना कराने वाली औषधि है। यह मुत्रल होने से सुजन वाली सभी बिमारियों पर उपयोगी है। अपने गन्ध एवं प्रभाव से यह मस्तिष्क रोग में शान्ति प्रदान करती है। यह कृमिनाशक है। यह बुद्धिवर्द्धक एवं गला के रोगों को दूर करने की क्षमता रखती है। यह पेट के वायु को निकालती है। दर्द को दूर करती है। सुजन को मिटाती है। मीर्गी एवं हिस्टीरिया की दवा है। पागलपन एवं भूत-प्रेत की बीमारी में भी यह सफलतापूर्वक प्रयुक्त होता है। यह वायु के रोग तथा स्नायुशुल का नाशक है। सफेद जाति का बच मन बुद्धि को ठीक करता है। पाचक अग्नि को सुधारता है। जिससे शरीर के अन्दर की विनिमय क्रिया सुधरती है। फलस्वरूप यह आयुवर्द्धक वीर्यजनक बन जाता है। कफ के रोग, भूत बाधा और कृमियों को दूर करता है। आयुर्वेद के अन्दर बच, ब्राह्मी, शंख पुष्पी ये तीन औषध मन मस्तिष्क एवं स्नायु के रोगों की अद्भुत औषध मानी जाती है। इन तीनों औषधियों का मिलित चूर्ण लेने से मन मस्तिष्क की कमजोरी सहित सभी स्नायविक रोग मिटती है। बच वमन कराने वाली औषध है। इसलिए इसकी मात्रा आधी से एक ग्राम तक ही सीमित रखनी चाहिए। इसलिए जब इन तीनों दवाओं को एक साथ मिलाकर प्रयोग करना हो तो 1 ग्राम बच, 2 ग्राम शंख पुष्पी, 4 ग्राम ब्राह्मी के अनुपात में दवा का निर्माण करना चाहिए तथा 3 ग्राम तक औषधि प्रतिदिन लेना चाहिए। इन तीनों के मिलित योग से सभी अंग-प्रत्यंगों की बीमारी दूर की जा सकती है। यह कामशक्ति वर्द्धक भी हो जाती है। मलेरिया, एड्स जैसी भयावह रोगों की भी यह सिद्ध दवा हो सकती है। यह किडनी के तकलीफ को भी मिटाती है। बच का 1/8 ग्राम का नियमित प्रयोग कंठ के रोगों को मिटा देता है तथा स्मरणशक्ति को बढ़ा देता है। सर्दी जुकाम खांसी दूर करने वाली औषधियों में मिलाकर इसका काढ़ा पिलाने से रोग का बढ़ना बन्द हो जाता है। इसका प्रयोग गरम प्रकृति वालों को नहीं करनी चाहिए। यदि इसके सेवन काल में कोई कठिनाई महसुस हो तो दवा छोड़ देनी चाहिए और सौंफ एवं मुनक्का का सेवन करना चाहिए। गुड़ के साथ खाने से भी इसके उपद्रव नष्ट होते हैं।

मात्रा : इसकी साधारण मात्रा 1/4 ग्राम से एक ग्राम तक प्रतिदिन हैं इससे अधिक हाने पर हानि करती है। यह मात्रा वयस्क के लिए है। बच्चों के लिए 1/8 ग्राम चूर्ण मधु से देनी चाहिए। बच को शोधित करके देने से इसके उपद्रव कारी दोष नष्ट हो जाते हैं तथा लाभकारी गुण पैदा होते हैं।

शोधन विधि : एक किलो बच में 2 किलो पानी तथा 2 किले गाय का दुध मिला कर उबालें जब पानी जल जाय तब बच को निकाल कर पानी से धोकर उसे धूप में सुखा लें। तब चूर्ण करें। इससे बच का गुण कुछ कम हो जाता है। परन्तु हानिरहित हो जाता है। सामान्यतः सभी वात कफ के बीमारियों में इसका प्रयोग किया जा सकता है। बच की खेती सभी जगह हो सकती है। इसका फसल अच्छा होता है। बाजार में इसकी अच्छी मांग है। आर्थिर्कक दृष्टि से इसकी खतेी काफी लाभदायक है।

दवना

यह तुलसी जाति की एक पौधा है। भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति के लिए इसका रोपण तुलसी के जैसा ही घर-घर किया जाता है। इसके पत्ते एवं मंजर तुलसी के पत्तों से भिन्न होता हैं। हिमालय में तथा कश्मीर इत्यादि में इसकी प्रतिष्ठा मैदानी इलाके की तुलसी जैसी ही है। इसे भी देवताओं पर चढ़ाया जाता है।

गुण एवं प्रयोग : इसके सुखे पौधें पत्तियें एवं फुलें में एक प्रकार का क्रियाशील तत्व पाया जाता हैं जिसे अवसन्तीन कहते हैं। यह तिक्त रस का पौधा है। इसमें एक प्रकार का तेल होता है। जो गहरा नीला होता है। जो अत्यन्त नसा पैदा कर विषैला प्रभाव शरीर पर छोड़ता है। इस औषधि की चिकित्सा में बहुत उपयोगिता है। मस्तिष्क को उत्तेजना प्रदान करता है। इसे हिस्टीरिया एवं मीर्गी में सफलतापूर्वक आदिवासियों के द्वारा व्यवहार किया जाता है। जड़ी-बुटियों में यह शक्तिदायक एवं तनाव विरोधी औषध हैं। अतः यह स्नायु रोगों की अति उपयोगी औषध बन जाता है। आक्षेप जन्य सभी बिमारियों पर इसका प्रयोग किया जा सकता है। उदर के लिए उपयोगी है। इसका जड़ ताकत प्रदान करता है। 5 से 10 ग्राम औषध को एक पाव पानी में उबाल कर पानी जब आधा बच जाय तब उसे छान कर पिलाने से स्नायविक आक्षेप मिटते है तथा दम्मा का दौरा थमता है। मस्तिष्क के सभी बिमारियों की यह अति उपयोगी औषध है।

मात्रा : इसका चुर्न 2 ग्राम तक सुबह सायं मधु या पानी के साथ दिया जाता है। इसका प्रयागे आक्षपे निवारक औषधियों के गुण वर्द्धन के लिए भी किया जा सकता है।

काला दवना

इसकी पहचान भारत वासियों को बहुत पूर्व से ही है। इसका पौधा हुबहु तुलसी के पौधों के समान होता है। परन्तु पत्ते थोड़े चौड़े एवं नुकीले होते हैं। मंजर कुछ बड़े तथा ज्यादा काले होते हैं। ओझा लोग विश्वास करते हैं कि इसके सुगन्ध के प्रभाव से किसी भी प्रकार की दुष्ट आत्माये नजदीक नहीं आती।

गुण : आसवन विधि से इसके सुगन्ध तले इत्यादि निकाले जाते हैं इसकी पत्तियाँ प्रतेावशेा जैसी बीमारियें एवं सर्दी खांसी में उपयोगी है। ग्रामीण ओझा वैद्य कठिन से कठिन बीमारियों में भी इसका प्रयोग करा कर लाभ लेते दखे गये हैं। इस पौधा को प्रत्येक घर में होना चाहिए। इस पौधे के नजदीक बैठ कर पौधों को धीरे-धीरे सहलाकर उनका सुगन्ध 5 से 30 मिनट प्रतिदिन लेने से सभी रोगो में लाभ होता हैं। मन मस्तिष्क को शान्ति मिलती है। रक्त वात के रोग मिटते हैं। खिचाव तनाव से यह मुक्त करता है। प्रसन्नता लाता है। इसमें अनेकों ऐसे तत्व है। जिसे आसवन विधि से प्राप्त किया जाता है।

मात्रा : सम्पुर्न पौधा का चणू 1 से 2 ग्राम प्रतिदिन खाने से वात कफ के सभी रागे मिटते हैं इसके सुगन्ध को आसवन विधि से निकालकर इसे बाजार में बेचा जा सकता है। तुलसी वर्ग के पौधों के आसवन विधि से ही इसका भी सुगन्ध या तेल निकाला जाता है। इसकी खेती स्वास्थ्य लाभ तथा धन अर्जन के लिए उपयोगी है। दवना जाति के अनेकों पौधे झारखण्ड में मिलते हैं। उन सबका गुण लगभग मिलता जुलता है। जिनकी खेती उपयोगी हो सकती है।

बाकस

इसे अडुसा के नाम से भी जाना जाता है। अत्यन्त प्राचीन काल से इस औषधि का प्रयोग भारतीय लोग करते आ रहे है। अधिकांश लोग इसे पहचानते हैं। यह दिव्य औषधि है तथा मौत के मुंह से बचाने वाला है। इसके पौधे 4 से 8 फीट तक ऊंचे होते हैं। पत्ते लम्बे तथा अमरूद के जैसे बड़े होते हैं। इसका काला तथा सफेद दो तरह का वृक्ष होता है। इसका फुल सफेद तथा लकड़ी मुलायम होता है।

गुण प्रभाव : इसे सफलता पूर्वक क्षय, रक्त-पित्त एवं खासी पर प्रयागे जमाने से भारतवासी करते आ रहे हैं ग्रमिण आदिवासी भी इन रोगों पर इसका सफल प्रयोग करते हैं। यह पेट की गड़बड़ी, पतला पैखाना, वमन, बुखार, सुजन पर भी प्रयुक्त होता है। इसका प्रयोग श्वास खाँसी पर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी करता है। इसका काढ़ा कफ को पतला कर निकाल देता है। फेफड़ा के गन्दगी को साफ करता है। रक्त को भी शुद्ध करता है। आधुनिक खोज के अनुसार दम्मा तथा श्वास नली की खाँसी के लिए भी यह उपयोगी माना जाता है। मुँह के रोगों के लिए भी यह उपयोगी है। स्त्रियों के मासिक धर्म को नियमित करता है तथा योनि में होने वाले रोग जैसे सभी प्रकार के प्रदर को यह दूर करता हैं। इसका फुल रक्त की गति को नियमित कर, रक्त चाप पर उपयोगी है। हिमालय में इसका प्रयोग इस कार्य के लिए किया जाता है। कफ रोग तथा चढ़ने और उतरने वाले ज्वर में इसका उपयोग अति लाभदायी है। इसकी कई दवायें बाजार में उपलब्ध हैं

व्यवहार विधि : 10 से 20 ग्राम पौधा फुल पत्ता जो भी हो उसे 205 ग्राम पानी में उबाला जाय तथा आधी बचने पर पिला दी जाय। इसकी खेती आर्थिक दृष्टि से लाभकारी है। इसका घनसत्व बनाकर बाजार में बेचा जाय तो बहुत लाभकारी होगा।

लता

यह भिंडी के पौधों के आकार-प्रकार का पौधा है। इसके पत्ते फल एवं बीज भिण्डी से मेल खाता है। यह 1 फीट से 10 फीट तक बढ़ जाता है। कहीं-कहीं झाड़ीनुमा भी हो जाता है। इसके बीज में कस्तुरी का गंध होता है। समस्त भारत में इसकी खेती की जा सकती है।

गुण एवं प्रभाव : यह पौष्टिक एवं कामवर्द्धक औषधि है। इसके बीज हृदय रोग के लिए अति उपयोगी है। उदर रोगों के लिए भी उपयोगी है। उदर वायु निकालने की क्रिया करता है। यह नेत्र रोगों के लिऐ भी लाभदायी है। इसकी जड़ एवं शाखायें सुजाक एवं प्रमेह में उपयोगी है। किसी-किसी व्यक्ति को वीर्य के साथ खुन निकलता है। ऐसा अत्यधिक मैथुन की प्रवृति तथा कम वीर्य बनने की स्थिति में होता है। रोग मुक्ति के लिए इसके पत्ते एवं शाखाओं को दोनों मिलित 100 ग्राम का काढ़ा बनाकर पिलाई जाती है और रोगी ठीक होता है। इसके बीज स्फूर्तिदायक और ऐंठन मिटाने वाले होते है। इस गुण के कारण यह लगभग सभी प्रकार के आक्षेप जन्य बिमारियों को मिटाता है। इसकी तासीर ठंढी है। इसलिए यह जलन को मिटाती है। मीर्गी, हिस्टीरिया, तनावग्रस्तता में इसका बीज उपयोगी है। यदि मुत्र का अवरोध हो तो इससे ठीक हो जाता है। इसके पौधों को सुखाकर इसकी धुंआ लेने से गला की सुजन मिटती है तथा आवाज साफ होता है।

सेवन विधि : इसके बीज के चूर्ण को एक ग्राम तक दो बार लिया जाता है। इसके बीज के 5 ग्राम चूर्ण को उबलते हुए 100 ग्राम पानी में डालकर आधा घंटा तक ढक देना चाहिए। फिर उसे छान कर पिलाने से आक्षेप जन्य बिमारियाँ दूर होती है। इसके एक दो पत्तों को तथा 4 से 5 इंच डंठल को पीस कर शर्बत जैसा बनाकर पिलाने से सभी प्रकार की गर्मी जलन से संबंधित रोग मिटते हैं। अन्य औषधियों के साथ मिलाकर भी इस दवा को तैयार किया जाता है। व्यवसायिक स्तर पर इसके खेती से लाभ इसकी खेती झारखण्ड सहित समस्त भारत में किया जाता है। यह बहु उपयोगी पौधा है। इसके बीज से सुगन्ध का संग्रह कर काफी मात्रा में धन कमाया जा सकता है। इसके बीज से तेल निकलता है। जिसकी व्यापक मांग भारत के बाजार के अतिरिक्त विश्व के बाजार में है। इसके बीज का चूर्ण बनाकर यदि बेची जाय तो घरेलू सौन्दर्य प्रसाधन के बाजार में भी इसकी खपत है। इसकी उपज भी अच्छी होती है। पौष्टिक होने के नाते इसका व्यवहार विभिन्न खाद्य पदार्थों के साथ किया जा सकता है। अतः धन अर्जन का यह स्त्रोत हो सकता है।

विदारी कन्द

यह लता जाति का पौधा है। इसमें कन्द बैठता है। इसी कन्द का व्यवहार चिकित्सा में होता है। जंगल के निवासियों के लिए यह सुपरिचित पौधा है। इसके पत्ते लोविया के पत्ते के समान होते हैं।

गुण-धर्म : यह पौष्टिक है। इसका फुल नपसुंकता के मिटाने के लिए असम के लागे व्यवहार में लते हैं इसका कन्द मीठा होता है। जिसमें बहुत अधिक पोषक तत्व रहता है। इसके कन्द तैलीय भी होता हैं जिससे यह अग्निवर्द्धक हो जाता है। यह रसायन है। कंठ के बिमारियों को मिटाता है। यह चर्मरोग, पित्त विकार, शरीर की जलन, अनैच्छिक धातु स्त्राव, मंदाग्नि को दूर करता है। मुंडा जाति के लोग इसके कन्द को शरीर पर रगड़ते हैं। यह स्तनों में दुध बढ़ाता है। कुपोषण जन्य बिमारियाँ इसके सेवन से मिटती है।

मात्रा : सुखा चणूार् 2 से 5 ग्राम प्रतिदिन दुध या पानी से

व्यवसायिक स्तर पर इसकी खेती बहुत उपयागेी है। इसके सवेन से कुपाषेाण मिटता है। यह सतुलित भोजन का विकल्प है। इसकी अधिक मात्रा में उत्पादन करने से यह काफी महंगी बिकेगी। इसका बाजार सम्पूर्ण आयुर्वेद उद्यम है। इसके सेवन से लोगों में रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है। यह पोषक तत्वों से भरपूर अहार का विकल्प है।

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