दुधारू पशुओं में ऑक्सीटोसिन हार्मोन का प्रयोग तथा मनुष्यों पर इसका दुष्प्रभाव: एक भ्रम

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संकलन -डॉ जितेंद्र सिंह ,पशु चिकित्सा अधिकारी, पशुपालन विभाग ,कानपुर देहात ,उत्तर प्रदेश

आए दिन हम सभी समाचार पत्रों के माध्यम से सुनते हैं कि दुधारू पशुओं में ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का प्रचलन दिन पर दिन बढ़ते जा रहा है इसका दुष्प्रभाव मनुष्यों पर काफी ज्यादा बढ़ते जा रहा है। इस तरह की अफवाहें मीडिया के अज्ञानता के द्वारा ज्यादा फैलाई जाती है। इसमें एनिमल एक्टिविस्ट का रोल और ज्यादा बढ़ जाता है। लेकिन हकीकत कुछ और है जो कि आम जनता के बीच में आनी चाहिए। मीडिया की इसी तरह की रिपोर्टिंग के चलते भारत सरकार द्वारा हाल ही में ऑक्सीटॉसिन के बिक्री पर बैन लगा दिया गया है। आइए जानते हैं
ऑक्सीटोसिन है क्या? क्या करता है ये शरीर में? क्या वास्तव में यह इतना खतरनाक है जितना हल्ला मचाया जा रहा है? क्या वास्तव में यह दूध में स्रावित होता है?

आइये जानें कि ये ऑक्सीटोसिन है क्या बला?

ऑक्सीटोसिन सभी स्तनधारियों में पाया जाने वाला एक हार्मोन है जो कि मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस नामक हिस्से में पैदा होता है और पिट्यूटरी ग्रंथि में इकठ्ठा रहता है। नर का मादा के प्रति आकर्षण पैदा करने में इसका विशेष रोल है इसीलिए इसको “लव हार्मोन” भी कहा जाता है।

बच्चे के जन्म के समय इसका विशेष महत्त्व है क्योंकि यह बच्चे के बाहर आने के लिए आवश्यक ‘लेबर पेन’ को आरम्भ करता है व माँ और उसके नवजात बच्चे के बीच ‘बोन्डिंग’ को बनाता है और जन्म के बाद दूध उतरने के लिए बहुत ही आवश्यक है।

कुल मिलाकर कुदरत ने ऐसी व्यवस्था कायम की है कि बच्चा भी पैदा हो जाये, माँ और बच्चे के बीच प्यार का रिश्ता भी कायम हो जाये और बच्चे को रोजाना भरपूर दूध भी मिले।

यह कुदरत का करिश्मा माँ के पास ही है, बाप के पास नहीं। इसीलिए माँ शायद अपने बच्चों से अधिक प्यार करती है ,बाप के मुकाबले।

बच्चे के जन्म के बाद माँ के शरीर में रोज ऑक्सीटोसिन बनता है। बच्चा जैसे ही माँ के स्तन को मुख लगाता है तो ऑक्सीटोसिन स्रावित होने लगता है जिसके प्रभाव से दूध उतरने लगता है और बच्चे का पेट दूध रुपी अमृत से भर जाता है। यह तो रहा ऑक्सीटॉसिन का मनुष्यों में प्रभाव।

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अब आते है पशुओं के ऊपर –

पशुओं में भी बिलकुल यही होता है। बस अंतर इतना है कि जब किन्ही कारणों से मादा पशु के अन्दर ऑक्सीटोसिन बनना कम हो जाता है या बंद हो जाता है तब इस स्वार्थी मनुष्य ने उस स्थिति का भी तोड़ खोज लिया। अपने मादा पशुओं को प्राकृतिक या कृत्रिम ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन लगाने लगा। इधर इंजेक्शन लगा नहीं उधर दूध बाहर।

ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन लगते ही मादा पशु की मजबूरी बन जाती है दूध देना। है तो वैसे वह उसके बच्चे के लिए। मगर मनुष्य अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए दूध का उत्पादन दुधारू पशुओं के द्वारा करवाता है।

ऑक्सीटॉसिन के बारे में अज्ञानता वश पशु प्रेमी, पर्यावरणविद तथा मीडिया इस बात को पुरजोर उठाते रहे हैं कि ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का प्रयोग दुधारू पशुओं में करने से यह हार्मोन दूध के माध्यम से मनुष्य तक पहुंचेगा तथा मनुष्यों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। वह इसको जहर का रूप दे देते हैं। उनका कहना होता है कि
ऑक्सीटोसिन जब दूध में आएगा तो बच्चे जल्दी जवान हो जायेंगे। उनके दाढ़ी मूछें जल्दी निकल आएँगी। लेकिन यह बिल्कुल एक भ्रम है ,ऐसा कुछ नहीं है हकीकत में।

सच्चाई तो यह है कि जो ऑक्सीटोसिन पशु को लगाया गया था वह दूध को उतारने में खर्च हो गया। मामला ख़त्म। अगर कुछ ट्रेसेज दूध में आ भी गए तो आँतों के अन्दर मौजूद एंजाइम्स के द्वारा इसका काम तमाम। ना रहा बांस और ना बजी बांसुरी। (Instestinal Digestion) आत में पाचन के पश्चात् इसका नाम-ओ-निशान भी नहीं बचता तो आँतों में इसके अवशोषण का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ न्यूट्रीसन, हैदराबाद में वर्ष 2012 में एक प्रयोग किया गया जिसमें यह देखा गया कि जिस भैंस को दूध उतारने के लिए ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन लगाया गया उस भैंस के दूध में ऑक्सीटोसिन की कम मात्रा थी उस भैंस के दूध के मुकाबले जिसे इंजेक्शन नहीं लगाया गया था।

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इस प्रयोग में यह पाया गया कि चाहे इंजेक्शन लगाया गया हो या ना लगाया गया हो, दूध में कुदरती तौर पर जितना ऑक्सीटोसिन होना चाहिए था बस उतना ही मौजूद पाया गया।

कुदरती तौर पर दूध में ऑक्सीटोसिन 0.015 नैनोग्राम से 0.17 नैनोग्राम प्रति मिलीलीटर पाया जाता है और औसतन 0.06 नैनोग्राम प्रति मिलीलीटर पाया जाता है।

जिन भैंसों को ऑक्सीटोसिन नहीं दिया गया था उनमें भी यह औसतन 0.06 नैनोग्राम प्रति मिलीलीटर पाया और जिन भैंसों को बाहर से ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन लगाया गया था उनमें भी यह औसतन 0.06 नैनोग्राम प्रति मिलीलीटर पाया गया।
चुकी हमारी भारती सिस्टम में हम सभी दूध को उबालकर पीते हैं। दूध उबालने वक्त इसमें मौजूद ऑक्सीटॉसिन कुछ ही मिनटों में उचित तापक्रम पर निष्क्रिय हो जाता है। उस दूध में ऑक्सीटॉसिन का अवशेष नहीं के बराबर रह जाता है।

इसलिए खुश रहो। खूब दूध पीयो। ऑक्सीटोसिन वहां नहीं है। थोडा मोड़ा है वह डाइजेस्ट हो जाता है।

इसलिए वैज्ञानिकों की बात मानों, इस मिडिया की मत सुनो जो कभी कहती है – आपके टूथपेस्ट में नमक है? ये लीजिये कोलगेट विद साल्ट। क्लोसअप विद एक्टिव साल्ट। जब सारे टूथपेस्ट बिक जाते हैं तो कहते है – आपके टूथपेस्ट में नमक है!! ये लीजिये बिना नमक वाला टूथपेस्ट। जैसे नमक वाले टूथपेस्ट से ब्लड प्रेशर बढ़ जायेगा। अरे भाई टूथपेस्ट खाना है या दांतों पर घिसना है।

मगर यहाँ सोचने वाली बात यह है कि पशुओं में ऑक्सीटोसिन किन परिस्थितियों में कम बनता है या नहीं बनता या बनता तो है मगर स्रावित नहीं होता जिसके फलस्वरूप दूध नहीं उतरता?

जब मादा पशु के नवजात बच्चे की मृत्यु हो जाती है तो अकस्मात माँ और बच्चे की बोन्डिंग टूट जाने के परिणामस्वरूप माँ के अन्दर ऑक्सीटोसिन बनना या तो कम हो जाता है या स्रावित होना।

बच्चे की मृत्यु क्यों हो जाती है?

इसके कई कारण हैं। अगर बच्चा नर है तो उसकी मृत्यु के चांस ज्यादा होते हैं। कारण मानव का स्वार्थ।

बछिया का तो खूब ध्यान रखेगा और बछड़े का?

बिलकुल नहीं। अभी कल ही एक किसान में बताया कि वह बछड़े को पेट के कीड़ों की गोली कभी नहीं खिलाता। नतीज़ा…. उसके पेट में कीड़े हो जाते हैं और वह धीरे धीरे खाना पीना छोड़ देता है और मर जाता है।

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कुल मिलाकर उसको इससे कोई मतलब नहीं कि बच्चा मर जायेगा तो गाय या भैंस दूध नहीं देगी उसके पास तो इसकी रेमेडी है ना – ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन।

अब बात करते हैं इसके दूसरे पहलू की।

गाय या भैंस को किसान ने ऑक्सीटोसिन लगाकर दूध निकाल लिया। हमने भी बता दिया कि दूध में कोई खतरा नहीं है। मगर क्या बात यहीं पर समाप्त हो गयी?

शायद नहीं। दूध से तो कोई खतरा नहीं है मगर जिस पशु को ऑक्सीटोसिन लगाया गया उसका तो कबाड़ा कर दिया आपने। उसके हॉर्मोन सिस्टम को तो बर्बाद कर दिया ना। अब उसे आदत पड़ जाएगी। बिना ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन लगे वह दूध देगी ही नहीं। और जब बाहर से ऑक्सीटोसिन मिलेगा तो हाइपोथैलेमस ऑक्सीटोसिन पैदा क्यों करेगा?

और हाँ ऑक्सीटोसिन की ज्यादा मात्रा के साइड इफेक्ट्स भी तो होंगे। दूध उतारने के लिए आवश्यकता थी मात्र 1-3 यूनिट ऑक्सीटोसिन की और लगाते हैं कभी कभी तो 20 यूनिट तक। आप तो बच गए। मगर पशु?

बस यहीं पर मीडिया गलत है। जहाँ कोई समस्या नहीं वहां तो समस्या बता रहा है और जहाँ समस्या है, उसका जिक्र तक नहीं।

है कोई जो आगे आए? लोगों को समझाए कि मत लगाओ ऑक्सीटोसिन पशुओं को। हमारा तो नहीं बिगड़ता मगर उस निरीह पशु का तो बिगड़ता है।
मेरे इस पोस्ट से शायद आप वैज्ञानिक पहलू को समझ कर संतुष्ट हो गए होंगे कि ऑक्सीटॉसिन का भ्रम ज्यादा फैलाए जाता है लेकिन हकीकत कुछ और है। मोटे तौर पर यदि हम देखे थे दुधारू पशुओं में ऑक्सीटॉसिन इंजेक्शन का प्रयोग पशुपालकों द्वारा दूध उतारने के लिए ही किया जाता है लेकिन यह ऑक्सीटॉसिन पशुओं के हार्मोन सिस्टम को खराब कर देते हैं जिसका दुष्प्रभाव पशुओं पर पड़ता है है और उसमें पशु ज्यादा प्रभावित होते हैं मनुष्यों की अपेक्षा।

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