धनवंतरी दिवस तथा आयुर्वेद का महत्व

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धनवंतरी दिवस तथा आयुर्वेद का महत्व

 

डॉ जितेंद्र सिंह ,पशु चिकित्सा अधिकारी, कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश

“सर्वभय व सर्वरोग नाशक देवचिकित्सक आरोग्यदेव धन्वंतरि”

स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी पूंजी है। आयुर्वेद में सभी प्रकार के रोगों का इलाज संभव है।
आयुर्वेद के जनक भगवान धनवंतरी की जयंती को आज हम धनतेरस के रूप मे मनाते है । हर साल कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को धनवंतरी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भगवान धनवंतरी के पृथ्वी पर अवतरण से पहले आयुर्वेद गुप्त अवस्था में था। उन्होंने आयुर्वेद को आठ अंगों में बांट कर समस्त रोगों की चिकित्सा पद्धति विकसित की।

कौन थे धन्वंतरी और क्यों होती है धनतेरस पर इनकी पूजा———–

आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता भगवान धन्वंतरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देव हैं। सर्वभय व सर्वरोग नाशक देवचिकित्सक आरोग्यदेव धन्वंतरि प्राचीन भारत के एक महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ था । पौराणिक व धार्मिक मान्यतानुसार भगवान विष्णु के अवतार समझे जाने वाले धन्वन्तरी का पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। धन्वन्तरी ने इसी दिन आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था । इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व कार्तिक त्रयोदशी धनतेरस को आदि प्रणेता, जीवों के जीवन की रक्षा , स्वास्थ्य , स्वस्थ जीवन शैली के प्रदाता के रूप में प्रतिष्ठित तथा विष्णु के अवतार के रूप में पूज्य ऋषि धन्वन्तरी का अवतरण दिवस के रूप में मनाया जाता है और आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता भगवान धन्वंतरि का ॐ धन्वंतरये नमः आदि मन्त्रों से प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायुष्य प्रदान करें। पुरातन धर्मग्रन्थों के अनुसार देवताओं के वैद्य धन्वन्तरी की चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि अष्टधातु के बर्तन खरीदने की परंपरा प्राचीन काल से कायम है। आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य के देवता धन्वन्तरी ने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने शल्य चिकित्सा का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत नियुक्त किये गए थे। सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे, जिन्होंने सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सक अर्थात सर्जन थे। कहा जाता है कि शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।
रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद भागवत महापुराण आदि पुराणों और संस्कृत के अनेक ग्रन्थों में आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वंतरि का उल्लेख प्राप्य है। आयुर्वेद के आदि ग्रन्थों सुश्रुत्र संहिता चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में धन्वंतरि का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रन्थों भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रन्थों में आयुर्वेदावतरण के उधृत प्रसंगों में धन्वंतरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है। कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास रचित श्रीमद भागवत पुराण में धन्वंतरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है। गरुड़ और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण वे वैद्य कहलाए। विष्णु पुराण में धन्वन्तरि दीर्घतथा का पुत्र बतलाते हुए कहा गया है कि धन्वंतरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार धन्वंतरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है – समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वंतरि प्रथम, धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय और काशिराज दिवोदास धन्वंतरि तृतीय। भगवान धन्वंतरि प्रथम तथा द्वितीय का उल्लेख पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं मिलता है।
वेद संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रुप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। धन्वन्तरी का प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के पश्चात निर्गत कलश से अण्ड के रुप मे हुआ। समुद्र से निकलते ही उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: अब यह संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें अगले जन्म में जब सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।इस वरदान के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रुप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। वे सभी रोगों के निवारण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया था । धन्वंतरि की वंश-परम्परा हरिवंश पुराण पर्व 1 अध्याय 29 के आख्यान के अनुसार इस प्रकार है –
काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।(हरिवंश पुराण पर्व 1 अध्याय 29 )
विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है-
काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।
धन्वन्तरी के सम्बन्ध में पुरातन ग्रन्थों में प्राप्य सन्दर्भों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया। विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण 3-51 में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है –
सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।।
-ब्रह्मवैवर्त पुराण 3-51
सुश्रुत के मतानुसार ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया।
विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्।
स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।।
इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वारा चरक संहिता के निर्माण का भी आख्यान भी पौराणिक ग्रन्थों में साक्ष्य के रूप में उपलब्ध है। पुरातन ग्रन्थों के अनुसार धन्वंतरि काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे । उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्त्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए इस प्रकार सुश्रुत संहिता किसी एक का नहीं, बल्कि धन्वंतरि, दिवोदास और सुश्रुत तीनों के वैज्ञानिक जीवन का मूर्त रूप है। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का कलश जुड़ा है। वह भी सोने का कलश। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था। उन्होंने कहा कि जरा मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। सुश्रुत उनके रासायनिक प्रयोग के उल्लेख हैं। धन्वंतरि के संप्रदाय में सौ प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही निदान और चिकित्सा हैं। आयु के न्यूनाधिक्य की एक-एक माप धन्वंतरि ने बताई है।

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समुद्र मंथन के बाद भगवान धन्वंतरी प्रकट हुए थे। तो उनके हाथों में अमृत से भरा कलश था इसलिए इस दिन धातू से जुड़े बर्तन या आभूषण खरीदने का चलन निकल पड़ा। मान्यता है कि इस दिन खरीददारी करने से उसमें तेरह गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं।
दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं। धन्वंतरी आयुर्वेद के चिकित्सक थे, जिन्हें देव पद प्राप्त था। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार थे और इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस मनाया जाता है।

धनतेरस का महत्व:-

हमारे समाज मे धनतेरस को लेकर कुछ ऐसी मान्यतए है

  1. इस दिन नए उपहार, सिक्का, बर्तन व गहनों की खरीदारी करना शुभ माना जाता है। शुभ मुहूर्त में पूजन करने के साथ सात धान्यों की पूजा की जाती है. सात धान्य में गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर शामिल होता है।
  2. धनतेरस के दिन चांदी खरीदना शुभ माना जाता है।
  3. भगवान धन्वन्तरी की पूजा से स्वास्थ्य और सेहत मिलता है। इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हैं।
    लेकिन येसब करते हुये मेरा मानना है की ईक चिकित्सक के नाते हम अपने अपने विषय छेत्र मे आयुरवेदा का एस्तेमाल कैसे हो पर चर्चा कर सकते है ।
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धनतेरस के दिन क्या करें :

  1. इस दिन धन्वंतरि का पूजन करें।
  2. नवीन झाडू एवं सूपड़ा खरीदकर उनका पूजन करे।
  3. सायंकाल दीपक प्रज्वलित कर घर, दुकान आदि को श्रृंगारित करें।
  4. मंदिर, गोशाला, नदी के घाट, कुओं, तालाब, बगीचों में भी दीपक लगाएं।
  5. यथाशक्ति तांबे, पीतल, चांदी के गृह-उपयोगी नवीन बर्तन और जेवर खरीदना चाहिए।
  6. हल जुती मिट्टी को दूध में भिगोकर उसमें सेमर की शाखा डालकर तीन बार अपने शरीर पर फेरें।
  7. कार्तिक स्नान करके प्रदोष काल में घाट, गौशाला, बावड़ी, कुआँ, मंदिर आदि स्थानों पर तीन दिन तक दीपक जलाएं। साथ ही यदि हम चिकित्सक है चाहे पशु चिकित्सक या मेडिकल डॉक्टर , हम अपने अपने छेत्र मे आयुरवेदा का बेहतर उपयोग कैसे हो एसपर चर्चा कर सकते है ।

भगवान धन्वंतरी की चार भुजायें हैं जिसमें ऊपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुए हैं, जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है। इन्हें आयुर्वेदिक चिकत्सक वाला देवता माना जाता है। इन्होंने कई औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास भी हुए और उन्होंने ‘शल्य चिकित्सा’ का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया था और इसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखा था और सुश्रुत को विश्व का पहला सर्जन माना जाता है।

सर्वभय व सर्वरोग नाशक देवचिकित्सक आरोग्यदेव धन्वंतरि – धन्वंतरी मंत्र

ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधिदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम !
कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम।
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढ़दावाग्निलीलम॥
आयुर्वेद के देव धन्वन्तरी जी का आज पूजन- महाकाली की मूल प्रतिष्ठा औषधियों में मानी गई है। तन्त्रशास्त्र में इसका वर्णन है। प्राचीनकाल में तान्त्रिक विभिन्न जड़ी-बुटियों से औषधि बनाने का कार्य त्रयोदशी (धनतेरस) से लेकर अमावस्या (दीपावली) की अवधि में करते हैं। यह काली पूजन की अवधि है। मंत्र-सिध्दी की अवधि और तन्त्रसिध्दी की अवधि हैं। तुलसी पूजन, आंवले के वृक्ष का पूजन, आंवले के पेड़ के नीचे बैठ कर भोजन करना, यह सब कार्तिक मास में होता है। जिससे दैहिक, दैविक और भौतिक स्तर पर जीवन स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रह कर प्रकृति की अनुकम्पा मिलती रहे। जीवन संजीवनी और काल की सिध्दि की अधिष्ठात्री महाकाली है। समृध्दि, वैभव, भौतिक सम्पन्नता और श्री की अधिष्ठात्री लक्ष्मीजी हैं। इन दोनों के सहयोग से ही जीवन की पूर्णता प्राप्त होती है। इसलिए इसी पर्व पर ‘धन्वन्तरी जयन्ती’ मनाई जाती है।
स्वास्थ्य रक्षा के नियम—-
भगवान धन्वन्तरी विष्णु के अवतार हैं। दीपावली काली की पूजा और महाकाली की पूजा का पर्व है। धनतेरस से लेकर भाईदूज तक का पूरा सप्ताह एक प्रकार से धनलक्ष्मी, स्वास्थ्य (धन्वन्तरी), औषधि (महाकाली) अन्नकूट (अन्नपूर्णा यम द्वितीया) यम की पूजा, आराधना का सप्ताह है।
तुलसी का सृजन पूरे कार्तिक माह में होता है। तुलसी प्राय: सबके घरों में समान रूप से पूजी जाती है। चार्तुमास और शरद पूर्णिमा के बाद यह पहली अमावस्या जाड़े की भूमिका प्रस्तुत करती है। गुलाबी ठंड का मौसम स्वास्थ्य लाभ के लिए सबसे अच्छा माना है। औषधि का उपयोग भी स्वास्थ्य के लिए अधिक रोग मुक्ति के लिए कम होता है। वास्तव में धनतेरस जहां लक्ष्मी वृध्दि का पर्व है, वहीं स्वास्थ्य वर्धन का भी है।
इन सारे पूजन, अर्चना आदि का अर्थ केवल उस चेतना का विकास, संवर्धन, उन्नयन करना है जिससे मन, बुध्दि, चित्त और अहंकार का स्वाभाविक विकास हो सके। प्रकृति की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए तुलसी पूजन, आकाशद्वीप पूजन इसका प्रतीक है। धन्वन्तरी जयन्ती का अर्थ प्रकृति की अनुकूलता प्राप्त करके, प्रकृति की असीम अनुकम्पा प्राप्त करना है। आयुर्वेद के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ शरीर और दीर्घायु से ही हो सकती है।
धन्वन्तरी चाहे देवता रहे हों या वैज्ञानिक अथवा अलौकिक मानव किन्तु इनता निश्चित है कि उन्होंने लोक कल्याण की भावना और मानव जाति के लिए जरा व्याधि से मुक्त करने का अभूतपूर्व वातावरण साधन क्रमबध्द करके एक महान आदर्श हमारे लिए प्रस्तुत किया है। आजे के आधुनिक वातावरण में स्वास्थ्य रक्षा के नियम एवं सिध्दांत को छोड़ कर हमारा शरीर बीमारियों का घर बनता जा रहा है। रोग निवारण हेतु चिकित्सा और औषधि निश्चय ही आवश्यक है, परन्तु केवल रोगियों की रक्षा पर उचित ध्यान न दिया जाये तो धीरे-धीरे वे भी रोगी होंगे। इस प्रकार रोगियों की संख्या बढ़ती जाएगी और रोगों का कभी समाप्त न होने वाला क्रम बन जाएगा। इसलिए धनतेरस का पर्व ‘स्वास्थ्य दिवस’ के रूप में मनाकर लोग तन्दुरुस्ती का श्रेष्ठ महत्व समझें। दवाओं पर आश्रित रहने की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहने के प्रति सुचारू, सम्पन्न, जागरुक और सचेष्ट हो। जीवन में पूर्ण स्वस्थ रहना ही सबसे बड़ी सफलता और समस्त सफलताओं का आधार हैं। यह समझकर आराध्य देव का जन्म जिन आदर्शों के लिए हुआ है उन पर निष्ठापूर्वक चल कर उनके द्वारा प्रवर्तित सिध्दान्त हम अपनावें।इस मांगलिक कार्य शुभ कार्य पर किए जाने वाले कार्यों का स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बड़ा महत्व है। यह कार्य मन, आत्मा और ज्ञानेन्द्रिय को प्रसन्न करने वाले होते हैं। आयुर्वेद ने स्वस्थ शरीर को ही धन माना है। ‘पहला सुख निरोगी काया और दूजा सुख घर में माया’ लक्ष्मीजी को दूसरा दर्जा दिया है। धन-दौलत को जड़ माना है। स्वस्थ शरीर को ही सुख माना है। ऋषिमुनियों के द्वारा धनतेरस को प्रथम धन्वन्तरी पूजन में भगवान से स्वस्थ रहने की प्रार्थना करने और दीपावली पर लक्ष्मीजी की पूजा-अर्चना को कहा है। धनतेरस अर्थात भगवान ‘धनवन्तरी जयन्ती’ का अर्थ आयुर्वेद ‘विद्या का पूजन’ और विद्या पूजन का अर्थ-प्रकृति, औषधि वनस्पति और इन सबसे बढ़कर प्रकृति को गोद में उपजे प्राकृतिक निधियों का पूजन। प्रकृति की असीम अनुकम्पा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन। प्रकृति के साथ सहचर्या विष्णु का है और लक्ष्मी के पति विष्णु हैं। महाकाली का वत्सल रूप विष्णु के साथ रचता है और श्री के साथ विष्णु स्वरूप विराजमान रहते हैं। धन्वन्तरी स्वयं विष्णु के अवतार माने गये हैं। यही विष्णु जो सृष्टि के पालक और रक्षक हैं। यही विष्णु जो लक्ष्मीपति हैं। श्री के साथ स्वास्थ्य और स्वस्थ होने के लिए औषधि चाहिए। स्वस्थ का अर्थ है-’दीघार्यु’ और श्री का अर्थ ‘पुरुषार्थ’ का तेज। धन्वन्तरी जिस अमृत कलश के साथ समुद्र मन्थन से अवतरित हुए थे उनमें इन तीनों का समन्वय था।
सर्जरी के जनक- समस्त प्राणियों का कष्ट दूर करने, रोग पीड़ा से ग्रसित मानव समुदाय की जीवन रक्षा के लिए परमात्मा ने स्वयं धन्वन्तरी के रूप में अवतरित होकर जनकल्याण के लिए समुद्र मन्थन से अमृत कलश लिए प्रादुर्भाव हुए और संसार में शल्य तंत्र को पूर्णत: विकसित किया। आज संसार में शल्य तन्त्र (सर्जरी) आयुर्वेद की देन है।
आज पूरा विश्व समाज अंटीबीओटिक के प्रतिकूल प्रभाव से जूझ रहा है । ईसका येक मात्र बेहतर उपाय है की हम आयुरवेदा के तरफ लौटे लेकिन ईसमे अभी बहुत सारे प्रामाणिकता का वैज्ञानिक काशौटी पर उतारने केलिए अनुषंधान तथा डॉक्युमेंटेशन की जरूरत है , सरकार को भी चाहिए की ईसको पहला प्राथमिकता दे ।

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