रोमंथी पशुओं में चिचड़ियों का प्रकोप एवं उनसे होने वाले रोग एवं नियंत्रण

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संकलन -डॉक्टर के.एल. दहिया,
पशु चिकित्सक, राजकीय पशु हस्पताल, हमीदपुर (कुरूक्षेत्र) हरियाणा

ग्रीष्म ऋतु शुरू होते ही बाह्य परजीवियों का प्रकोप हर जगह देखने को मिलता है। यह प्रकोप किसी एक जगह पर कम मिलता है तो किसी अन्य जगह पर ज्यादा। इनका प्रकोप मौसम के अनुसार कम-या-ज्यादा देखने को मिलता है। ग्रीष्म ऋतु शुरू होते ही इनका प्रकोप बढ़ने लगता है जबकि सर्द ऋतु में कम हो जाता है। बाह्य परजीवी पशुधन के साथ-साथ मनुष्यों को भी हानि पंहुचाते हैं। बहुत से बाह्य परजीवी एक पशु से दूसरे पशु में बीमारी फैलाने का कारण भी बनते हैं। चिचड़ियों के कारण भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2000 करोड़ पये का नुकसान होने का अनुमान है।
बाह्य परजीवियों में चिचड़ियाँ पशुधन को सबसे अधिक हानि पहुंचाती हैं। चिचड़ियाँ, मच्छरों की तरह, चमड़ी पर बैठते ही काटना शुरू नहीं करतीं हैं। ये पहले चमड़ी पर चिपकती हैं, जिसमें 10 मिनट से 2 घण्टे लगते हैं। चमड़ी पर सही जगह पर चिपकने के बाद, ये चमड़ी में सुराख करके रक्त चूसना शुरू कर कर देती हैं। इस दौरान ये चिपकने वाला पदार्थ भी छोड़ती हैं, जो इनको चमड़ी के साथ मजबूती से चिपकने में सहायता प्रदान करता है। चिचड़ियाँ चमड़ी को सून करने वाला पदार्थ भी छोड़ती हैं, जिससे पशु को दर्द कम होता है और चिचड़ियाँ आराम से पशु का खून चूसती रहती हैं। एक चिचड़ी दिन में 0.5 से 1.5 मि.ली. खून चूस लेती है। खून चूसने के दौरान चिचड़ियाँ पशुओं में बीमारी के कीटाणु भी छोड़ती हैं। एक अकेली चिचड़ी, जिसका पशुपालक को पता भी नहीं चलता है और समझा जाता है कि पशुओं में चिचड़ियों का प्रकोप नहीं है लेकिन रोगाणुयुक्त एक अकेली चिचड़ी ही रोग को फैलाने के लिए काफी होती है।
रोमंथी पशुओं जैसे कि गाय, भैंस, भेड़, बकरी इत्यादि में कई प्रकार की चिचड़ियाँ जैसे कि इग्जोडेस, एम्बलीओमा, हिमफाईसेलिस, हायलोमा, डरमासेन्टर, रिपीसेफालस, अरगस, ओटाबियस, ओर्निथोडोरस इत्यादि पायी जाती हैं। एक चिचड़ी का सामान्य आकार 2.0 से 3.7 मिलीमीटर लंबा होता है। नर चिचड़ी का आकार मादा से काफी छोटा है। खून चूसने के बाद इनका आकार काफी बड़ा हो जाता है।
रोमंथी पशुओं में चिचड़ियों के दुप्रभाव: –
1. त्वचा पर काटना: चिचड़ी के काटने से पशु की चमड़ी पर जख्म हो जाते हैं। चमड़ी पर जख्म हो जाने से उस पर मक्खीयाँ अण्डे देती हैं जिससे उस जख्म पर मक्खियों की इल्ली पनपती है व जख्म को और ज्यादा बड़ा कर देती हैं।
2. हानिकारक प्रतिक्रियायें: चिचड़ियाँ काटने पर पशु के शरीर में रसायन छोड़ती हैं, जिससे शरीर में हानिकारक प्रतिक्रियाएं उत्पन्न होती हैं। इन प्रतिक्रियाओं से बुखार, रक्तस्राव, हृदय-क्षिप्रता व सांस लेने में दिक्कत आना, जैसी जानलेवा समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
3. शरीर में खून की कमी: बेशक एक छोटी सी चिचड़ी पशु के शरीर से थोड़ा सी ही खून चूसती हो लेकिन यदि यही छोटी-छोटी चिचड़ियाँ पशु के शरीर पर बहुत ज्यादा संख्या में चिपकी हों तो ये उसका खून चूसकर खत्म कर देती हैं। एक चिचड़ी दिन में 0.5 से 1.5 मि.ली. खून चूस लेती है।
4. अन्य कीटों प्रत्याक्रमण: पशु की चमड़ी के जिस स्थान पर चिचड़ी काटती है तो उस स्थान पर खून बहने लगता है जिस मक्खियां आकर्षित होती हैं और चमड़ी के उस स्थान पर अण्डे देती हैं। इन अण्डों में से लारवा पैदा होते हैं जो जिन्दा रहने के लिए पशु की चमड़ी के ऊत्तकों को खाकर नष्ट करते हैं व जख्म को ठीक नहीं होने देते हैं।
5. जानलेवा रोगों का संक्रमण: चिचड़ियों का प्रत्याक्रमण पशुओं का खून चूसकर उन्हें कमजोर तो करता ही है लेकिन ये पशुओं में एनाप्लाजमोसिस, बबेसियोसिस, थेलेरियोसिस एवं एहरलिचियोसिस जैसे जानलेवा रोग भी फैलाती हैं जिन्हें आमतौर पर चिचड़ी रोग कहते हैं। इन रोगों के कारण पशुपालकों का न केवल धनहानि होती है बल्कि पशुधन हानि भी होती है।
6. चिचड़ी पक्षाघात: चिचड़ियाँ पशुओं का खून चूसते समय अपनी लार से चमड़ी को सुन्न करने के लिए रसायनों को छोड़ती हैं। इन रसायनों के कारण पशुओं में लकवा हो जाता है जिसे चिचड़ी पक्षाघात कहते हैं। इस रोग के कारण पीड़ित पशु खड़ा नहीं हो पाता है।
7. आर्थिक हानि: चिचड़ियों से ग्रसित पशु कमजोर होने से उनकी विकास वृद्धि, उत्पादन, कार्यक्षमता एवं जनन क्षमता कम हो जाती है। प्रत्यक्षतौर पर दुधारू पशुओं का दुग्ध उत्पादन कम होने से पशुपालकों को प्रतिदिन हानि होती है। छोटे विकाशील पशुओं में उनकी परिपक्वता में देरी होने से उनके पालन-पोषण पर अतिरिक्त धन खर्च होता है। कमजोर होने के कारण उनकी प्रजनन क्षमता प्रभावित होने के कारण पशुओं की जनन दर कम होती है तो भार ढोने में उपयोग किये जाने पशुओं की कार्यक्षमता कम हो जाती है।
बाह्य परजीवियों का प्रकोप कैसे बढ़ता है
1. पशुशाला में: चिचड़ियाँ अण्डे देने के लिए पशु को छोड़कर पशुशाला की दरारों, छिद्रों व कूड़ा-कर्कट में छिप जाती हैं व वहाँ पर अण्डे देती हैं। अण्डे हजारों की संख्या में होते हैं। तथा वहाँ पर कुछ दिन पनपने के बाद वहाँ से हटकर अगली अवस्था के प में अन्य पशुओं पर लग जाते हैं।
2. पशुशाला में नये पशुओं का प्रवेश: यदि पशुशाला में चिचड़ी से ग्रसित नये पशुओं का प्रवेश होता है तो साधारण सी बात है कि आपकी पशुशाला में पहले मौजूद अन्य पशुओं में भी ये परजीवी फैल जाएगें।
3. कुत्तों से: अवारा कुत्तों में प्रायः परजीवी लगे रहते हैं। अत: इन अवारा कुत्तों के पशुशाला में घुसने से परजीवी पनपने लगेगें।
4. चारागाह का बदलना: चरागाहों में विभिन्न प्रकार के परजीवी निवास करते हैं। यही परजीवी हमारे पशुधन के ऊपर चिपक जाते हैं व विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं।

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पशुओं में चिचड़ीयों से फैलने वाले रोग

1. एनाप्लाजमोसिस: पशुओं में होने वाला यह संक्रामक रोग रिकेट्सिया नामक जीवाणुओं से होता है जो पशुओं में चिचड़ियों, मक्खियों एवं मच्छरों के काटने से फैलता है। आमतौर पर इस रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु में अधिक पाया जाता है क्योंकि इस मौसम में रोग को फैलाने वाले बाह्य परजीवियों की संख्या सबसे अधिक होती है। इस रोग पीड़ित पशुओं में रोग के प्रारंभ में अनियमित बुखार होता है जिससे शरीर का तापमान 105 डिग्री फारेनहाइट से भी अधिक होता है। पशुओं में खून की कमी होने से खून पतला होता है और पशु में कमजोरी भी दिखायी देने लगती है। संक्रमित पशु सुस्त हो जाता है। उसको भूख कम लगती है या खाना-पीना छोड़ देता है और उनका शारीरिक भार कम हो जाता है। दुधारू पशु का दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है। रोगी पशु का शरीर कांपने लगता है उसकी दिल की धड़कन बढ़ जाती है। रोग के अग्रिम चरण में पशु की श्लेमा झिल्ली पीली हो जाती है व संक्रमित पशु धीरे-धीरे पीलियाग्रस्त हो जाता है। पशु को सांस लेने में परेशानी भी हो जाती है। पीड़ित पशु का व्यवहार आक्रामक या अनियन्त्रित भी हो सकता है। लालिमायुक्त काला पेशाब भी हो सकता है। पशु को कब्ज भी हो सकती है। गर्भित पशुओं में गर्भापात की समस्या भी देखने को मिलती है।
2. बबेसियोसिस: रोमंथी पशुओं में इस रोग का संक्रमण रिपीसेफालस एवं हिमफाईसैलिस नामक चिचड़ियों से फैलता है। इस रोग से पीड़ित रोमंथी पशुओं में तेज बुखार, रक्ताल्पता, कमजोरी, दुग्ध उत्पादन में कमी, शारीरिक विकास में कमी, लालिमा युक्त पेशाब, पहले दस्त लगना एवं बाद में कब्ज होना इत्यादि लक्षण पाये जाते हैं। इन लक्षणों के अतिरिक्त मस्तिक संबंधी लक्षण जैसे कि पशु द्वारा आँखों की पुतलियों का घुमाना, अतिसंवेदनशील होना, दीवार या खुण्टे से सिर को दबाना, शरीर में अकड़न, गतिभंग, दाँत पीसना, माँसपेशियों में कंपन हो सकते हैं जिनको आमतौर से सर्रा रोग में देखा जाता है।
3. थेलेरियोसिस: ग्रीम एवं वर्षा ऋतु में होने वाला यह रोग आमतौर पर संकर या विदेशीमूल की गायों में सबसे अधिक पाया जाता है। इस रोग के कारण गायों में बहुत तेज (104 – 107 डिग्री फारेनहाइट) बुखार, सुस्ती, लंगड़ापन, नाक एवं आँखों से पानी बहना, लाल आँखें, सांस लेने में परेशानी, चमड़ी पर गाँठें बनना, कभी-कभी खूनी एवं श्लेमायुक्त दस्त, खाना-पीना छोड़ देना, कमजोरी इत्यादि लक्षण दिखायी देते हैं। इस रोग से पीड़ित पशुओं की सतही लसिका ग्रन्थियों का आकार बढ़ जाता है।
4. एहरलिचियोसिस: एहरलिचिया जीवाणुओं से होने वाला यह रोग रिपीसेफालस एवं डर्मासेंटर चिचड़ियों के काटने से फैलता है जो परिधीय रक्त वाहिकाओं में श्वेत रक्त कणिकाओं एवं प्लेटलेट्स में गुणात्मक रूप से बढ़ता है। इस रोग के लक्षण चिचड़ियों के काटने के बाद 7 – 14 दिन बाद दिखायी देते हैं। इस रोग से पीड़ित रोमंथी पशुओं में तेज बुखार, चारा न खाना, चक्कर काटना, लड़खड़ाना इत्यादि लक्षण दिखायी देते हैं।

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चिचड़ियों से बचाव एवं उपचार

• पशुशाला की दीवारों, खुरली इत्यादि में मौजूद दरारों एवं छिद्रों को बन्द कर देना चाहिए।
• पशुशाला को साफ-सुथरा रखें व उसमें कुड़ा-कर्कट इक्कट्ठा न होने दें।
• पशुशाला को साफ पानी से अच्छी तरह धो कर 1.0 प्रतिशत मेलाथियॉन या सुमिथियान सेविन का छिड़काव करना चाहिए। मार्च से सितम्बर तक ऐसा हर 15 दिन बाद करना चाहिए।
• नए पशुओं को पहले पशुओं के साथ पशुशाला में बांधने से पहले अच्छी तरह सुनिश्चित कर लें कि नये पशुओं पर चिचड़ियाँ ना लगी हों, यदि चिचड़ियाँ लगी हैं तो पहले उनको कीटनाशक दवा के घोल से नहलाना चाहिए एवं चिचड़ियाँ मरने के बाद ही अन्य पशुओं के साथ बांधना चाहिए।
• अवारा कुत्तों का पशुशाला में प्रवेश नहीं होने नहीं देना चाहिए, साथ ही पशुशला में रखे कुत्तों को भी पशुओं से अलग रखें व चिचड़ी मुक्त रखें।
• चरागाहों में चरने वाले पशुओं से खून चूसने के बाद चिचड़ियाँ नीचे जमीन पर गिर जाती हैं जो दोबारा भूख लगने पर अन्य पशुओं की तलाश में रहती हैं और उन पर चढ़ जाती हैं। यदि कुछ समय उन्हें पशु न मिलें तो वे अपने-आप ही मर जायेंगी या अन्य जगह चली जाएंगी। चरागाह में झाड़ियाँ इत्यादि नहीं होनी चाहिए क्योंकि ज्यादातर चिचड़ियों के लारवा इन्हीं पर ही रहते हैं।
• मेलाथियोन (0.5 प्रतिशत), डेल्टामेथारिन (0.0025 प्रतिशत), साईपरमैथरिन (0.01 प्रतिशत), फैनवेलरेट (0.1 प्रतिशत) आदि दवाओं का पानी में घोल बनाकर सप्ताह में दो बार पशुओं पर छिड़काव किया जा सकता है।
जैसा कि चिचड़ियों के उपचार के लिए उपयोग की जाने वाली रसायानिक दवाएं जहरीली होती हैं, कई बार इनके कुप्रभाव पशुओं में देखने को मिलते हैं। इनके उपयोग से पशुओं की मृत्यु भी हो जाती है। अतः पशुपालकों को सलाह दी जाती है कि इनका इस्तेमाल केवल पशु चिकित्सक की देखरेख में ही करें। इन रसायानिक दवाओं के अतिरिक्त पशुपालक निम्नलिखित घरेलु दवाओं का उपयोग करके भी पशुधन को चिचड़ियों के प्रकोप से बचा सकते हैं: –
• लहसुन की 10 कलियाँ, नीम के पत्ते एक मुट्ठी, नीम की गुठलियाँ एक मुट्ठी, बच का प्रकंद (भूमिगत तना) 10 ग्राम, हल्दी पाउडर 20 ग्राम, लैंटाना के पत्ते एक मुट्ठी और एक मुट्ठी तुलसी के पत्तों को कूटकर चटनी बना लें। अब इसमें एक लीटर साफ पानी मिलाकर अच्छी तरह मिक्स करने के बाद छलनी या कपड़े की सहायता से छानकर चिचड़ियों से पीड़ित पशुओं के ऊपर सप्ताह में दो बार आवश्यकतानुसार दिन के गर्म समय में ही छिड़काव करें। इसका छिड़काव पशुशाला की दरारों में भी करें। जब तक चिचड़ियाँ पशुओं के शरीर से समाप्त न हो जाएं तब तक इसका नियमित छिड़काव करते रहें।
• अन्य कई प्रकार के घरेलु उपचार भी चिचड़ियों के प्रकोप को कम करने में सहायक होते हैं जिनमें आमतौर घर या खेत में खड़े नीम के 250 – 300 ग्राम पत्तों की चटनी बनाकर एक लीटर पानी में घोलकर पशुओं के ऊपर सप्ताह में 2 – 3 बार लगाने से अच्छा प्रभाव देखने को मिलता है। इसके साथ यदि इसमें 20 ग्राम हल्दी भी मिला लें तो अच्छा प्रभाव मिलता है।

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