पशुओं मे थेलेरियोसिस रोग

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  पशुओं मे थेलेरियोसिस रोग

 डॉ. प्रवीन बानो , सहायक आचार्य , पशु व्याधिकी विभाग , सी.वी.ए.एस., राजुवास , बीकानेर

थेलिरिओसिस विभिन्न पशुओं में होने वाला एक प्रमुख रोग है । यह रोग थेलेरिया नामक परजीवी से होता हैं । गाय-भैंस में मुख्यतया थेलेरिया ऐनुलाटा एवं भेड़-बकरी में थेलेरिया  ओविस नामक रक्त में पाए जाने वाले परजीवी से होता है। यह रोग मुख्यतः कम उम्र के बछड़े एवं बछडियों में अत्यधिक पाया जाता है।  इस रोग का प्रभाव ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में अधिक होता है क्योंकि इस मौसम में इस रोग को फैलाने वाले कीलनियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि होती है,क्योंकि उच्च तापमान एवं आर्द्रता कीलनियों की वृद्धि के लिए अच्छा वातावरण प्रदान करते हैं। इस रोग में पशुओं की मृत्यु दर लगभग 90% तक रहती है इसलिए समय रहते हुए इस रोग का उचित उपचार होना अति आवश्यक है।

रोग के प्रमुख लक्षण

  • इस रोग से प्रभावित पशु में लगातार तापमान बढ़ता जाता है तथा तेज बुखार रहता है।
  • इस रोग से प्रभावित पशु में स्पष्ट रूप से स्कैपुलर लिंफ नोड में सूजन देखी जा सकती है।
  • आंखों से स्राव, खांसी एवं नाक से पानी का बहना भी इसके लक्षणों मे शामिल है ।
  • इस रोग से प्रभावित पशु में भूख नहीं लगने के कारण खाना पीना बंद कर देने की वजह से या कम कर देने की वजह से पशु अत्यधिक कमजोर हो जाता है तथा पशु के शरीर में खून की कमी हो जाती है।
  • दुधारू पशुओं में दुग्ध उत्पादन में गिरावट होने लगती है।
  • कभी-कभी संक्रमित पशुओं में खूनी दस्त भी हो सकते है, पीलिया के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं जिसकी वजह से पशु का मूत्र भी पिला हो जाता है।
  • समय रहते हुए उचित उपचार न मिलने पर संक्रमित पशु की मृत्यु की हो सकती है।
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रोग की पहचान एवम् उपचार

  • इस रोग की पहचान इसके प्रमुख लक्षणों जैसे स्कैपुलर लिंफ नोड में सूजन के आधार पर की जा सकती है,इसके अलावा आसपास के क्षेत्र में किलनियों का पाया जाना भी इस रोग का कारण है।
  • इस रोग की पहचान के लिए विशेष जांच के लिए खून के स्मीयर का माइक्रोस्कोपिक अध्ययन एवं लिंफ नोड्स व यकृत की बायोप्सी की जानी चाहिए जिससे परजीवी की उपस्थिति का पता लगाया जा सके।
  • इसके अलावा पोलिमेरेज चैन रीएक्शन एवं सीएफटी जैसी आण्विक तकनीको द्वारा भी इस रोग की जांच की जा सकती है।
  • इस रोग के उपचार हेतु हमें निकटतम पशु चिकित्सक की सहायता लेनी चाहिए तथा इसके उपचार हेतु ब्यूपारवाक्विनोन नामक दवा का प्रयोग किया जाता है।खून की कमी की स्थिति में आयरन की दवाई भी देना आवश्यक होता है।

रोग की रोकथाम

  • इस रोग की रोकथाम के लिए कीलनियों के नियंत्रण के लिए 10% साइपरमैथिन स्प्रे से पशु के शरीर पर छिड़काव करना चाहिए तथा पशु को .2 मिलीग्राम/किलोग्राम की दर से इवरमेक्टिन इंजेक्शन भी दिया जाना चाहिए।
  • इस रोग की रोकथाम एवं बचाव हेतु रक्षावेक टी- टीका 2 वर्ष के ऊपर के गाय एवं गाय के बछड़ों के गर्दन में त्वचा के नीचे लगवाना चाहिए तथा इस रोग की पूर्ण रोकथाम के लिए प्रतिवर्ष इस टीके को लगवाना चाहिए। ग्याभिनपशुओं को यह टीका नहीं लगाया जाता है।
  • इसके अलावा इस रोग के नियंत्रण हेतु उचित आवास एवम् आहार प्रबंधन भी अति- आवश्यक है ।
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