भारतीय पशुपालकों की आय में वृद्धि कैसे करें

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भारतीय पशुपालकों की आय में वृद्धि कैसे करें
डा. दीप नारायण सिंह
पशुधन उत्पादन एवं प्रबन्धन विभाग, दुवासू, मथुरा।

हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है तथा पशुपालन भारतीय कृषि का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। देश की लगभग दो तिहाई से अधिक आबादी गांवों में निवास करती है जिनके आय का प्रमुख स्रोत कृषि एवं पशुपालन है। कृषि एवं पशुपालन सदैव एक दूसरे के पूरक रहे हैं। पशुपालन से हमें पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य उत्पाद जैसे दूध, ऊन, अंडा, मांस आदि प्राप्त होता है, साथ ही पशुशक्ति, जैविक खाद, घरेलू ईंधन, खाल के साथ-साथ ग्रामीण परिवारों के लिए नकद आय का एक नियमित स्रोत भी प्राप्त होता है। छोटे ग्रामीण परिवारों की आय में पशुधन का योगदान लगाभग 16 प्रतिशत है, जबकि सभी ग्रामीण परिवारों का राष्ट्रीय औसत 14 प्रतिशत है। इतना ही नहीं, पशुधन क्षेत्र लगभग देश की 8.8 प्रतिशत आबादी को रोजगार प्रदान करता है, जिसमें बड़े पैमाने पर भूमिहीन और अकुशल आबादी शामिल है। सूखे, अकाल और अन्य प्राकृतिक आपदाओं में भी किसानों के लिए पशुधन सबसे अच्छे बीमा के समान है। भारत में पशुधन संपदा की वृद्धि अनुमानतः लगाभग 6 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से हो रही है। दूध, ऊन, अंडा, मांस आदि और उनके उप-उत्पाद, जैसे कि संशोधित पशु प्रोटीन, पशु वसा, दूध और अंडे के सह-उत्पाद पशुपालकों के लिए एक अच्छा आय का स्रोत है।
पशु उत्पादों के साथ-साथ उनके उप-उत्पादों का उचित उपयोग किया जाये तो देश की अर्थव्यवस्था और पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के साथ-साथ किसानों की आय वृद्धि पर भी सीधा प्रभाव डालती है। फसल अवशेषों का समुचित उपयोग, पूरे वर्ष चरागाहों का उचित प्रबन्धन या हरे चारा की उपलब्धता के साथ फसल अनुक्रमण, फसल रोटेशन और एकीकृत कृषि प्रणालियों को अपनाने से पशु का स्वास्थ्य, उत्पादन एवं प्रजनन पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पडता है, जिससे पशुपालक को अतिरिक्त आय प्राप्त होती है। गैर-पारंपरिक आहार का उपयोग भी पशुपालन की लागत को कम करने एवं पर्यावरण सुरक्षा में लाभदायी होता है। हमारे पशुपालकों द्वारा उन्नत वैज्ञानिक प्रबन्धन को अपनाने से उन्हें मूल्यवान पशु उत्पादों, सह-उत्पादों एवं पशु उत्पादों के मूल्य संवर्धन से अधिकतम लाभ मिलेगा। विगत कुछ वर्षों में विभिन्न दुग्ध उत्पादों के उचित और विवेकपूर्ण उपयोग के लिए लोगों के बीच व्यापक प्रसार और बढ़ती रुचि के लिए जबरदस्त काम किया गया है, इसके लिए गोबर और मूत्र के साथ डेयरी, मांस और त्वचा उद्योग के मूल्य संवर्धन और पशु उपोत्पादों के साथ किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के साथ-साथ स्वस्थ पर्यावरणीय मुद्दों की बेहतरी एवं मृदा तथा मानव स्वास्थ्य के लिए पंचगव्य, जीवामृत और गौ-मूत्र अर्क आदि मूल्यवान उत्पाद तैयार किया जा रहा है। परन्तु हमारे अधिकांश पशुपालक इन नवीनतम जानकारियों एवं इनसे होने वाले लाभ से लगभग अनभिज्ञ हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनकी आय में अपेक्षित वृद्धि नही हो पा रही है। यदि पशुपालकों के द्वारा नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकि ज्ञान को अपनाया जाये तो निःसन्देह हमारे पशुपालकों की आय में वृद्धि होगी, जो कि निम्नवत हैः-
अ. पशुधन प्रबन्धन
पशुधन के उत्तम विकास, स्वास्थ्य, उत्पादन एवं प्रजनन हेतु हमें उनका जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार उनके खान-पान एवं आवास का उचित प्रबन्ध करना चाहिये। पशुधन प्रबन्धन के प्रमुख रूप से चार प्रमुख स्तम्भ होते हैं।

  1. आहार- पशुधन को उनकी आवश्यकतानुरूप संतुलित आहार प्रदान करना एवं पूरे वर्ष हरे चारे की उपलब्धता बनाये रखना, जीवन की विभिन्न अवस्थओं के अनुरूप हरा चारा, सूख चारा, अनाज एवं खनिज मिश्रण प्रदान करना।
  2. प्रजनन- नस्ल की शुद्धता बनाये रखना एवं अयोग्य पशुओं का बधियाकरण कर अवांछनीय प्रजनन को कम करना आदि।
  3. प्रबन्धन- पशुओं को समुचित आवास की उपलब्धता, साफ एवं स्वच्छ वातावरण प्रदान करना, स्वास्थ्य प्रबन्धन जैसे सम्यक टीकाकरण, कृमिनाशक औषधियों को खिलाना एवं वाह्य एवं अन्तः परजीवीनाशक औषधियों को खिलाना।
  4. छंटनी- अनुपयोगी, अपेक्षित विकास न होने, उत्पादन कम होने, प्रजनन एवं स्वास्थ्य आदि मेंविकार होने की स्थिति में समय-समय पर छँटनी करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जिससे हमे अपने पशुओं से लागत के अनुरूप अधिक लाभ प्राप्त होगा।
    हमें अपने पशुधन के उचित प्रबन्धन का विशेष ध्यान रखना चाहिये, विशेषरूप से आवास प्रबन्धन, आहार प्रबन्धन, प्रजनन प्रबन्धन, स्वास्थ्य प्रबन्धन, स्वच्छता प्रबन्धन, दुहान प्रबन्धन, पशु उत्पाद एवं सह-उत्पाद प्रबन्धन, चारा प्रबन्धन, विपणन एवं शीतलन आदि।
    क. आवास प्रबन्धन-
    पशुओं को विभिन्न वातावारणीय एवं भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप सस्ता टिकाउ आवास उपलब्ध करायें, जिसमें सूर्य के प्रकाश एवं वायु संचार की उचित व्यवस्था होना आवश्यक है। गर्मी, सर्दी एवं बरसात के मौसम में पशुओं को सुरक्षित रखने हेतु बाडे में पंखे, पर्दे एवं बिछावन का प्रयोग लाभदायक होगा।
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ख. टीकाकरण-
उत्तम स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुये पशुओं के सम्यक टीकाकरण पर विशेष ध्यान दें। खुरपका-मुँहपका, लगडी. बुखार, गलघोंटू, टीबी एवं रेबीज का टीका अपने स्वस्थ पशु को अवश्य लगवायें।
ग. कृमिनाशक औषधियों का प्रयोग-
सभी पशुओं को वाह्य एवं अन्तः परजीवियों के प्रकोप को समाप्त करने के लिए वर्ष में कम से कम दो बार कृमिनाशक औषधियाँ अवश्य खिलायें। वाह्य एवं अन्तः परजीवियों के कारण पशु दिन-प्रतिदिन दुबला होता जायेगा साथ ही उसके स्वास्थ्य, उत्पादन एवं प्रजनन पर बहुत ही नाकारात्मक प्रभाव पडेगा। अन्तःपरजीवियों की उपस्थिति से पशु की मृत्यु भी हो सकती है।
घ. स्वास्थ्य प्रबन्धन-
बीमार पशुओं एवं बाहर से लाये गये पशुओं को अन्य स्वस्थ पशुओं से दूर एक पृथक बाडे में रखना चाहिये। बीमार पशुओं का तुरंत नजदीकी प्शुचिकित्सक के परामर्श लेकर उनका उपचार करायें। साथ ही दुहान एवं अन्य पशुपालन गतिविधियों में लगे हुये सभी व्यक्तियों का भी एक नियमित अन्तराल पर स्वास्थ्य परीक्षण करायें।
ड. वर्ष भर हरे चारे की उपलब्धता-
पशुपालक भाईयों एवं बहनों को कुछ इस प्रकार फसल चक्र अपनाना चाहिये कि पशुओं के लिये वर्ष भर हरे चारे की उपलब्धता बनी रहे साथ ही चारे की अधिकता की थिति में हे एवं साइलेज के रूप में उनको संरक्षित करके भी रखें। दलहनी तथा गैर-दलहनी चारा फसलों को अपने खेतों में अवश्य लगायें और अपने पशुओं को क्षिलायें।
च. चारागाह प्रबन्धन
गांवों में उपलब्ध चारागाह को यथासंभव उसका संरक्षण एवं प्रबन्धन करना चाहिए जिससे पशुओं को आवश्यकतानुसार घास खाने को मिल जाये। चारागाह की भूमिक्षरण एवं घासों को नष्ट होने से बचाना चाहिए।
छ. पशु- जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में प्रबन्धन-

  1. नवजात शिशुओं की देखभाल और प्रबंधन-
    बछडों के अच्छे विकास के लिए अच्छा प्रबन्ध बहुत जरूरी है, जो कि परिवर्तित वंश (रिप्लेशमन्ट स्टाॅक) के लिए लाभदायक है। बछडों का खान-पान, देखभाल माँ के गर्भ से ही शुरू हो जाती है। गर्भावस्था, विशेषरूप से ब्यांत से अंतिम तीन महीने मादा पशु के आहार में दाने की मात्रा बढा दें जिससे गर्भस्थ शिशु का विकास समुचित रूप से हो सके साथ ही खीस/कोलस्ट्रम एवं दूध का उत्पादन भी अधिक होगा। बछडे को गाय के पहले दूध (खीस)/कोलोस्ट्रम को अवश्य पिलायें। खीस मोटा और गाढा होता है। इसमें अधिक मात्रा में प्रोटीन और विटामिन होती है। इम्यूनोग्लोबिन प्रोटीन जो बहुत सारी बीमारियों से सुरक्षा प्रदान करती है। खीस ट्रिप्सिन विरोधी पदार्थ रखती है, जो कि इम्यूनोग्लोबिन को पेट में पचने से रोकती है और वह जैसे को तैसा अवशोषित हो जाती है।
  2. ओसर प्रबन्धन-
    ओसर अर्थात हीफर किसी भी डेयरी फार्म का भविष्य निर्धारित करती हैं। अतः उनका खान-पान एवं रखरखाव का विशेष ध्यान रखना चाहिये। मादा पशु को समय से गर्भित करने एवं गर्भ धारण योग्य बनाने के लिए आहार में कम से कम 10-15 किग्रा. हरा चारा, 2-3 किग्रा सूखा चारा एवं 2-3 किग्रा. दाना अवश्य दें।
  3. गर्भित पशु की देखभाल-
    गर्भित मादा पशु को अन्य पशुओं के साथ कदापि ना रखें, क्योंकि आपस में लडने से गर्भपात होने का भय बना रहता है । प्रारम्भिक गर्भावस्था में अतिरिक्त अनाज खिलाना चाहिये। ब्याने से लगभग 2-3 माह पूर्व मादा पशु का दूध निकालना बन्द कर देना चाहिए क्योंकि इससे गर्भस्थ बच्चे के विकास, दुग्धस्रावी ग्रंथियों एवं ब्यांत के उपरान्त दूध उत्पादन पर बहुत ही नाकारात्मक प्रभाव पडता है। अंतिम गर्भावस्था में मादा पशु के आहार में दाने की मात्रा को बढ़ाकर लगभग 3-4 किग्रा कर देना लाभप्रद होगा। मादा पशु के ब्यांत के समय देखरेख अत्यन्त आवश्यक है। ब्यांत के समय किसी भी प्रकार की समस्या होने पर निकटतम पशुचिकित्सक से परामर्श अवश्य लेना चाहिए।
  4. दुधारू पशुओं का उचित प्रबन्धन
    दुधारू प्शुओं की उचित देखभाल करना चाहिए। उन्हें नियमितरूप से साफ-स्वच्छ रखना चाहिए। खुरैरा, स्नान, कृमिनाशक औषधियों का पान, संतुलित आहार एवं हरा चारा प्रदान करें। पूर्ण हस्त विधि से दुहान करना लाभप्रद होता है। स्वच्छ दूध उत्पादन हेतु आवश्यक सावधानियां एवं नियम अवश्य अपनाना चाहिए।
    ज. फार्म रिकार्डः-
    पशुपालकों को पशु प्रजनन व उत्पादन तथा अन्य गतिविधियों का लेखा-जोखा एवं फार्म रिकार्ड रखना चाहिए। प्रजनन रिकार्ड़ से पशुपालक आने वाली सम्भावित मदावस्था एवं ब्यांत की तिथि का पशु में अनुमान लगा सकते हैं तथा उस पशु को उन सम्भावित दिनों में ध्यान से मदावस्था के लिए देख सकते है। उचित फार्म रिकार्ड़ से प्रजनन नीति बनाने व समय रहते बीमारियों के विरूद्ध उचित कदम उठाने में सहायता मिलती है।
    झ. दूध और दूध उत्पादों का मूल्य संवर्धन
    दूध की गुणवत्ता अर्थात शेल्फ लाइफ बढ़ाने के लिए दूध से दही, पनीर, पनीर, बटर मिल्क, फ्लेवर मिल्क, खीर, पेसम आदि जैसी मिठाइयाँ और अन्य वस्तुएं तैयार करने की कला के द्वारा भी अधिक आय अर्जित की जा सकती है, इसे वैल्यू एडिशन अर्थात मूल्य संवर्धन भी कहा जाता है। वैल्यू एडिशन के बारे में हमें प्शुपालकों को उचित जानकारी प्रदान करके हम उनकी आय एवं दूध की गुणवत्ता बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
    ञ. मार्केटिंग चैनल अर्थात विपणन व्यवस्थाः
    सरकार को पशुधन और पशुधन उत्पादों के सम्यकरूप से विपणन बाजार की स्थापना के लिए उचित एवं आवश्यक कदम उठाने की आवश्यकत है, जिससे पशुपालक बिना किसी समस्या व बिचैलिया के अपने दूध एवं दूध उत्पाद की उचित कीमत प्राप्त कर सके, औस उसकी आय में वृद्धि हो। स्थान-स्थान पर दूध संग्रहण केन्द्र एवं शीतलन प्रणाली की स्थापना भी किसानों एवं पशुपालकों की आय में वृद्धि करने में सहायक होगी।
    त. पशु उपोत्पादों का उचित उपयोग
    पशु उपोत्पाद जैसे कि संसोधित पशु प्रोटीन, पशु वसा, दूध और अंडे के उत्पाद, और पूर्व खाद्य उत्पाद पशुधन/कुक्कुटों के आहार में सम्मिलित कर देने से लागत में कमी आती है साथ ही ऐसे पशुओं से हम भरपूर उत्पादन भी प्राप्त करते हैं। पशु उपोत्पादों का समुचित उपयोग होने से वातावरण को भी स्वच्छ रखने में भी सहायता मिलती है। इस प्रकार डेयरी, गोबर, मूत्र और मांस उद्योग के उत्पाद और उनके महत्व के अनुसार पशुधन के विभिन्न उप-उत्पाद के उपयोग को नियमित रूप से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करके और किसानों को अपनी आय में सुधार करने के लिए शिक्षित करने के साथ-साथ बेहतर करने एवं आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए बढ़ावा देना चाहिए। ईंधन के रूप में पशु खाद का उपयोग पशुधन और कुक्कुट संचालन के लिए अनेकानेक फायदे प्रदान करता है। मवेशियों के गोबर को जैव-ऊर्जा में परिवर्तित करने के अवायवीय पाचन दृष्टिकोण के बाद पशुधन खेतों से ग्रीन-हाउस गैस उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। इस प्रकार, इस प्रक्रिया को बड़े पैमाने पर बायोगैस के उत्पादन के लिए व्यापक रूप से लागू किया जा सकता है। इसके अलावा, परिणामस्वरूप मीथेन का उपयोग बिजली उत्पादन, प्रकाश व्यवस्था, हीटिंग आदि के लिए भी किया जा सकता है।
    गोबर, मृत शरीर, सींग, हड्डियां और मूत्र से जैव उर्वरक, कीट निरोधक आदि बनाने में किया जा सकता है। उर्वरक। हमारे देश में, खेती और कृषि की खेती, पारंपरिक युग-पुरानी प्रणाली के अनुसार, किया जाता था, जिसमें गोबर खाद के रूप में काम करता था। गोबर मिट्टी की उत्पादन क्षमता को बनाए रखने के लिए एक बहुत अच्छा स्रोत है और मिट्टी के लाभदायी सूक्ष्म जीवाणुओं की आबादी को बढ़ाता है।
    गाय के गोबर को कृषि, ऊर्जा संसाधन, पर्यावरण संरक्षण और चिकित्सीय अनुप्रयोगों के क्षेत्र में व्यापक अनुप्रयोगों के कारण सोने की खान माना जाता है। इसका उपयोग कृषि में सह-उत्पाद के रूप में भी किया जाता है। गाय के गोबर से साबुन, टूथपेस्ट, फ्लोर क्लीनर, हेयर ऑयल, अगरबत्ती, शेविंग क्रीम और फेस वॉश जैसी कई कंपनियों द्वारा प्रोडक्ट लॉन्च किए गए हैं। ऐतिहासिक रूप से, महर्षि वशिष्ठ ने दिव्य “कामधेनु“ गाय की सेवा की और महर्षि धन्वंतरी ने मानव जाति को एक अद्भुत औषधि “पंचगव्य” (गोमूत्र, दूध, गोबर, दही और दही का एक संयोजन) प्रदान किया। संस्कृत में, इन सभी पांच उत्पादों को व्यक्तिगत रूप से “गव्य” कहा जाता है और सामूहिक रूप से “पंचगव्य“ कहा जाता है।
    सारांश-
    पशुपालन के बारे में नवीनतम ज्ञान के साथ ही पशुपालन की वैज्ञानिक पद्धतियों जैसे स्वास्थ्य प्रबन्धन, आहार प्रबन्धन, आवास प्रबन्धन, प्रजनन प्रबन्धन, पशु जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में आवश्यक प्रबन्धन, गर्भित पशु प्रबन्धन, दुहान प्रबन्धन, पूरे वर्ष हरे चारे की उपलब्धता एवं संरक्षण, फसल अवशेषों का समुचित उपयोग, पूरे वर्ष चरागाहों का उचित प्रबन्धन या हरे चारा की उपलब्धता के साथ फसल अनुक्रमण, फसल रोटेशन और एकीकृत कृषि प्रणालियों चारागाह प्रबन्धन, गैर-पारम्परिक आहार अर्थात नान कन्वेन्शनल फीड, टीकाकरण, दूध एवं मीट उत्पादों के वैल्यू एडिसन/संवर्द्धन, उपोत्पादों का समुचित उपयोग आदि के बारे में आवश्यक जानकारियाँ ग्रहण कर एवं अपनाकर हमारे पशुपालक भाई एवं बहनें कम लागत लगाकर अधिक आय अर्जित कर सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर सकते हैं, साथ ही देश के सर्वागीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
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