शुष्क काल एवं संक्रमण काल में पशुओं का पोषण एवं स्वास्थ्य

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शुष्क काल एवं संक्रमण काल में पशुओं का पोषण एवं स्वास्थ्य

(डॉ. कौशलेंद्र नारायण द्विवेदी)

(MVSc. Animal Nutrition)

टेक्निकल मैनेजर , केयरस लेबोरेटरीज प्राइवेट लिमिटेड, करनाल

शुष्क काल यह वह समय होता है जब दुधारू पशु स्वतः दूध देना बंद कर दे या पशुपालक स्वयं स्वेच्छा से दुहाई करना बंद कर देता है। जिसके परिणाम स्वरुप धीरे-धीरे थनों से दूध सूख जाता है और पुनः पशु के ब्याने के साथ दुग्ध निर्माण प्रारम्भ हो जाता है जो कि नवजात बछड़े के पोषण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। लेकिन पशुपालक अपने स्वयं के उपभोग एवं व्यावसायिक मुनाफे के लिए दुहाई करते हैं।

पशु का स्वास्थ्य व रोग प्रतिरोधक क्षमता उनके सही प्रबंधन व आहार की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। विषेष तौर पर दुधारु पशुओं में ब्याने के समय के आस-पास पोषण पर ध्यान देने की जरुरत होती है। शुष्क काल में (ब्याने से 60 दिन पहले) विरल तत्व संपूरण का अत्यधिक महत्व है। पशु के ब्याने के तीन सप्ताह पहले व तीन सप्ताह बाद तक का समय स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इस दौरान पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। इसी अवधि में ऊतकों में अभिक्रियाषील प्रकार की आक्सीजन भी बढ जाती है। इस कारण पशुओं के थन में संक्रमण होने की संभावना बढ जाती है, जिससे थनैला रोग व प्रजनन संबंधी समस्याएं होने की आषंका होती है तथा ब्यात पर दुग्ध उत्पादन में भी कमी हो जाती है। विटामिन ई, ए व सी तथा खनिज लवण सेलेनियम, जिंक तथा कापर प्रतिआक्सीकारक तत्व है। यह सभी तत्व ऊतकों में अभिक्रियाशील प्रकार की आक्सीजन की मात्रा को कम करते है।

विटामिन ‘ए’ एक वसा घुलनशील विटामिन है। गर्भावस्था में यह गर्भस्थ जीव (भ्रूण) के अंगो के विकास में योगदान देता है तथा मादा पशु के ऊतकों के मरम्मत का कार्य भी करता है, इसकी कमी से पशु में रतौधी नामक रोग होता है।

विटामिन ‘ई’ वसा में घुलनषील होता है तथा इसका जैविक सक्रिय प्रकार डी-अल्फा-टोकोफेराल है। विटामिन ‘ई’ सभी वसा झिल्लियों में पाया जाता है तथा वसा झिल्लियों को होने वाली क्षति को कम करता है ।

सेलेनियम एक आवश्यक विरल तत्व है। कई स्थानों की मिट्टी में सेलेनियम की मात्रा कम पाई जाती है। ऐसे स्थानों पर उगाए जाने वाले चारे में भी सेलेनियम कम होता है तथा पशुओं को सेलेनियम देने की जरुरत होती है।जिन स्थानों की मिट्टी में सेलेनियम की कमी नही होती, वहां सेलेनियम की विषाक्तता हो सकती है। हमारे देष में पंजाब व हरियाणा में सेलेनियम की मात्रा अधिक पाई गई है तथा इन प्रान्तों में पशुओं को सेलेनियम संपूरण देने की आवश्यकता नहीं है।

काॅपर प्रतिरोधक क्षमता के लिए महत्वपूर्ण है जो कि संक्रमण तथा विभिन्न बीमारियों से पशुओं की रक्षा करता है। कापर की कमी से जेर का रुकना, भ्रूण की गर्भ में मृत्यु तथा पशु की गर्भधारण क्षमता प्रभावित हो सकती है। कापर की कमी से पशु के शरीर के बालों का रंग काले से भूरा या लाल हो सकता है।

जिंक रोग प्रतिरोधक तंत्र का अवश्यक घटक है। यह थन नलिका में किरेटिन बनाने के लिए जरुरी है। थन नलिका में प्रवेश से रोकता है।

 

पशु की शारीरिक अवस्था का रोग प्रतिरोधक क्षमता पर प्रभाव –

 पशु की शारीरिक अवस्था भी रोग प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करती है। साथ ही साथ उत्पादन क्षमता पर भी प्रभाव पडता है। मध्यम शारीरिक अवस्था वाली गायों की उत्पादन क्षमता निम्न व उच्च शारीरिक अवस्था वाली गायों की अपेक्षा बेहतर होती है। अतः पशुओं के रख-रखाव व पोषण संबंधी निर्णय लेते समय उनकी शारीरिक अवस्था का ध्यान अवश्य रखना चाहिए ताकि पशु अधिक खाकर व उच्च शारीरिक अवस्था में पहुंचकर पशुपालकों के लिए नुकसानदायक सिद्ध न हो सके। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि पोषण की कमी से पशु निम्न शारीरिक अवस्था में न आ जाए। निम्न व उच्च शारीरिक अवस्था वाले पशुओं में मध्यम शारीरिक अवस्था वाले पशुओं के अपेक्षाकृत रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम होती है। जिसके कारण बीमारियों की आंशका बढ जाती है।

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 विरल तत्व सम्पूरण द्वारा थनैला रोग व अन्य प्रजनन सम्बंधी बीमारियों से बचाव –

थनैला रोग में थन में संक्रमण व सूजन हो जाती है। यह रोग थन को संक्रमित कर उसके कोष्ट को उत्पादकताहीन बना देता है, जिससे कि पशु का दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है। सामान्यतः थनैला रोग की संभावना पशु के ब्याने के समय के नजदीक अधिक होती है। इसका प्रमुख कारण ब्याने के आस-पास पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम होना है।

शुष्क काल में यदि पशु को विरल तत्व सही मात्रा में दिए जाए तो पशु को संक्रमण व बीमारियों से काफी हद तक बचाया जा सकता है तथा दुग्ध उत्पादन भी बढ जाता है। विरल तत्व संपूरण से गायों में थनैला रोग में 30-40% तक की कमी पाई गयी है। ब्याने के समय रक्त प्लाज्मा में विटामिन ‘ई’ की मात्रा 3 माइक्रोग्राम/मिली. होनी चाहिए, जिन गायों में यह मात्रा कम होती है उनमें थनैला रोग होने की संभावना बढ जाती है। रक्त में जिंक तथा काॅपर की मात्रा ब्याने के समय 0.9-1.0 तथा 0.6-0.7 पी.पी.एम. होनी चाहिए। विरल तत्व संपूरण से प्रजनन संबंधी बीमारियों जैसे रिटेंड प्लासेन्टा, मेट्राइटिस में भी कमी पाई गई है।

 

विरल तत्व सम्पूरण कब और कितना दें।

यह तत्व पशु को शुष्क काल में दो महीने तथा ब्याने के बाद एक महीने तक देने चाहिए। इन तत्वों को दाने में मिलाकर पशुओं को दिया जा सकता है।

इन तत्वों के विभिन्न रासायनिक प्रकारों की क्रियाशीलता भी अधिक या कम होती है।

 

तत्व मात्रा
विटामिन ई 100 आई.यू. प्रतिदिन शुष्क गायों के लिए
500 आई. यू. प्रतिदिन दूध वाली गायों के लिए
सेलेनियम 0.3 पी.पी.एम. प्रतिदिन/गाय
काॅपर 20 पी.पी.एम. प्रतिदिन/गाय
जिंक 40-60 पी.पी.एम. प्रतिदिन/गाय

 

पशुओं में संक्रमण काल एवं ब्यात से संबंधित बीमारियाँ

  • पशु जब उत्पादन कर रहा होता है तब उसको मेंटीनेंस राशऩ + उत्पादन राशन दिया जाता है और यदि पशु गाभिन है तो भ्रूण के विकास के लिए अलग से ज्यादा राशन दिया जाता है। लेकिन शुष्क काल में सामान्यतः ऐसा देखा है कि पशु का आवश्यक राशन भी कम कर दिया जाता है, जो कि पशु के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
  • संक्रमण काल (ट्रांजीसन पीरियड) आते ही यह एक समस्या का रूप ले लेता है। जिसमे पशु ढेर सारी उपापचय सम्बन्धी बीमारियों से ग्रसित हो जाता है।
  • अधिक उत्पादन क्षमता वाले दुधारू पशु प्रसव के पश्चात् अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अक्सर असमर्थ होते है। अतः इस समय उत्पादन से सम्बंधित बीमारियों के होने की सम्भावना बढ़ जाती है। मनुष्य ने पशुओं का गहन अनुवांशिक चयन करके दुग्ध उत्पादन में काफी बढ़ोत्तरी की है। लेकिन ज्यादा उत्पादकता, दुधारू पशुओं के विभिन्न  उपापचयी एवं उत्पादन सम्बन्धी बीमारियों का कारक बनता जा रहा है | दुधारू पशुओं के जीवन में ब्याँत से तीन सप्ताह पूर्व एवं तीन सप्ताह बाद का समय काफी महत्वपूर्ण होता है। व्यात से तीन सप्ताह पूर्व गर्भवती पशु के भ्रूण के पोषण हेतु ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ जाती है, लेकिन प्रसव के बाद पशु की शारीरिक ऊर्जा की माँग और भी ज्यादा हो जाती है। इस अवधि में प्रसव पीड़ा एवं शारीरिक परिवर्तन के कारण पशु की भूख में काफी कमी आ जाती है। इस समय यद्यपि पशु कम आहार लेता है फिर भी हार्मोनों के प्रभाव के चलते उसके दुग्ध उत्पादन में कमी नहीं आ पाती है। अतः ज्यादा उत्पादन एवं आहार में कमी के कारण पशु नकारात्मक ऊर्जा संतुलन की स्थिति में चला जाता है ।
  • नकारात्मक ऊर्जा संतुलन, पशुओं के विभिन्न उपापचयी एवं उत्पादन से सम्बंधित बीमारियों के होने की सम्भावना बढ़ा देता है अर्थात, यूँ कहें की पशु की शारीरिक आय कम एवं खर्च ज्यादा हो जाता है और पशु शारीरिक ऊर्जा रूपी कर्ज में चला जाता है। नकारात्मक ऊर्जा संतुलन में जाने के पश्चात पशु अपने दुग्ध उत्पादन को स्थिर रखने के लिए मुख्यतः आपने शरीर में एकत्रित वसा का उपयोग करने लगता है। इस तरह शरीर में जमा चर्बी बहुत तेजी से ख़त्म होने लगती है। इस तरह चर्बी के खत्म होने से काफी पुष्ट दिखने वाला पशु व्याँत के बाद कुछ दिनों में काफी दुबला पतला एवं कंकालनुमा दिखने लगता है। प्रसव के बाद मुख्य रूप से दुग्ध ज्वर, कीटोसिस, हाइपोमैग्नीसीमिया, पोस्टपार्चुरिएण्ट हीमोग्लोबिन्यूरिया, थनैला, सबक्लोनिकल रुमिनल एसिडोसिस, एबोमेसल विस्थापन गर्भाशय शोथ, जेर का रुकना, प्रसवोत्तर एनिस्ट्स, तथा प्रजनन सम्बन्धी अन्य विकार उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसलिए, प्रसव से तीन सप्ताह पूर्व एवं तीन सप्ताह बाद उत्तम दुधारू पशुओं का उचित प्रबंधन काफी महत्वपूर्ण है। इस अवधि में पशुओं के आहार में परिवर्तन करके उन्हें उत्पादन से सम्बंधित विभिन्न बीमारियों से काफी हद तक बचाया जा सकता है।
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पशुपालक अपने पशुओं को इन बीमारियों से बचाने के लिए इन बिन्दुओं का पालन कर सकते हैंः

 

  • ब्यात के 20-22 दिन पूर्व से रोजाना 50-60 ग्राम नौसादर (अमोनियम क्लोराइड) खिलाएँ नौसादर का स्वाद कड़वा होता है। अतः इसे दलिया या चुनी में मिला कर दें। कम से कम प्रसव के पाँच दिन पूर्व तथा ज्यादा से ज्यादा पैतालीस दिनों तक खिलाया जा सकता है। नौसादर खिलाने से पशु के रक्त का पीएच थोड़ा अम्लीय हो जाता है जिससे पैराथॉमॉन हार्मोन की हड्डियों से कैल्शियम निकालने की क्षमता बढ़ जाती है। अतः प्रसव के बाद खोस बनाने के लिए कैल्शियम ज्यादा तेजी से हड्डियों से निकलता है एवं रक्त में हुई कैल्शियम की कमी को पूरा करने में सक्षम हो जाता है। इस तरह पशु के शरीर में कैल्शियम की आपूर्ति आसानी से होती रहती हैं एवं पशु ज्यादा खीस या दूध देने के बावजूद भी कैल्शियम की कमी का शिकार नहीं हो पाता है। कैल्शियम की कमी नहीं होने से पशु पूर्ण आहार लेता हँ एवं नकारात्मक ऊर्जा में जाने से बच जाता है । कैल्शियम की कमी नहीं होने से ही पशुओं में प्रसव के समय या बाद होने वाली कई बीमारियाँ जैसे प्रसव के दौरान बच्चे का गर्भाशय से बहार आने में परेशानी होना, जेरी का रुकना, प्रसव से पूर्व या बाद सर्विकोवेजिनल या गर्भाशीय प्रोलैप्स (बेली फेंकना), समय से गर्भ धारण ना करना, गर्भाशय में मवाद बन जाना थनैला आदि के होने की सम्भवना कम हो जाती है।
  • ब्यात के तीन सप्ताह पूर्व से रोजाना 25-50 ग्राम विटामिन युक्त खनिज मिश्रण खिलाएँ। प्रसव से पूर्व खनिज मिश्रण खिलाने से पशु की रोग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ जाती है जो प्रसव के बाद होने वाली कई बीमारियों को रोकने में सहायक होता है। खनिज मिश्रण प्रसव के समय पशु को हुए स्ट्रेस से भी उबरने में सहायक होता है। खनिज मिश्रण खिलाने से प्रसव के बाद पशु का गर्भाशय अपने मूल रूप में जल्दी आ जाता है एवं पशु जल्द गर्भ धारण कर लेता है ।
  • ब्यात के बाद उच्च ऊर्जा वाले आहार दें । उच्च ऊर्जा वाले आहार का मतलब हैं कम मात्रा में खाने के बाद भी ज्यादा ताकत देने वाले आहार जैसे गुड़, बिनौले, ग्लिसेरोल इत्यादि।
  • ब्यात के बाद एकाएक आहार नहीं बदलें । ज्यादातर पशुपालक दुधारू पशुओं को प्रसव के बाद एकाएक दलिया या अनाज (दाना) खिलाने लगते हैं । ताकि दूध बढ़ जाय । लेकिन ऐसा करने से पशु के रुमेन (पेट) की अम्लीयता एकाएक ज्यादा हो जाती है जिसके चलते रुमेन में पाचन क्रिया को संचालित करने वाले लाभकारी सूक्ष्मजीवों की संख्या में कमी हो जाता है । अतः पशु की पाचन क्रिया प्रभावित हो जाती हैं तथा पशु की भूख में कमी आ जाती है । भूख में कमी के कारण पशु नकारात्मक ऊर्जा में जाने लगता है फलस्वरूप कई बीमारियों के होने की सम्भावना बढ़ जाती है। अतः प्रसव के बाद पशु के आहार में अनाज (दाने) या दलिया की मात्रा धीरे धीरे बढ़ाना लाभकारी होता क्योंकि ऐसा करने से पशु के पाचन क्रिया को संचालित करने वाले लाभकारी सूक्ष्मजीव अनाज के पाचन के लिए अनुकूलित हो जाते हैं एवं रुमेन की अम्लीयता एकाएक ज्यादा नहीं हो पाता है। इस तरह पशु के दुग्ध उत्पादन में बढ़ोत्तरी भी हो जाती है एवं पशु स्वस्थ भी रहता है। प्रसव के दौरान पशु को कोई समस्या हो तो योग्य पशु चिकित्सक से संपर्क करें।
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पशु के उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सावधानियाँ

  • पशु के रहने के उत्तम व्यवस्था करना।
  • झुंड को आयु वर्ग के आधार पर वर्गीकरण करना।
  • विषेषज्ञ द्वारा संतुलित राशन चार्ट बनाना और उसका अनुसरण करना।
  • पशुओं के पीने के लिए स्वच्छ पानी की व्यवस्था करना।
  • पशुओं का बाडा साफ-सुथरा तथा मक्खी, मच्छर मुक्त होना चाहिए।
  • पशु बाड़े में सूरज की सीधी रोषनी आनी चाहिए एवं जल जमाव नही होना चाहिए।
  • विभिन्न संक्रामक बीमारियों से बचाव के लिए पशुओं का टीकाकरण कराना।
  • संक्रमित या संदेह की अवस्था में पशु चिकित्सक द्वारा इलाज कराना और पशु को झुंड से अलग करके क्वारंटीन कमरे में रखना।
  • अंतःपरजीवी से बचाव के लिए वर्ष में दो बार बदलते क्रम में एन्थेल्मेटिक दवा पशु को देना।
  • बाहृय परजीवीयों से छुटकारा पाने के लिए बाहृय परजीवी नाशक दवा को निर्धारित पानी में घोलकर पशु को नहलायें।
  • मौसम बदलने के साथ पशु के खान-पान, चारा-पानी व आश्रय स्थल में तुरंत बदलाव ना करें बल्कि धीरे-धीरे बदलाव करें।
  • किसी भी संदिग्ध परिस्थिति में प्रशिक्षित चिकित्सक से परामर्श लें।

 

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