ठंड के दिनों में पशुओं में खूर पका मुंह पका रोग से बचाव कैसे करें

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HOW TO PROTECT ANIMALS FROM FOOT AND MOUTH DISEASE (FMD) DURING COLD DAYS

ठंड के दिनों में पशुओं में खूर पका मुंह पका रोग से बचाव कैसे करें

खुरपका-मुँहपका रोग एक तेजी से फैलने वाला छूतदार विषाणुजनित संक्रामक रोग है, जो विभक्त खुरवाले पशुओं यथा- गाय, भैंस, सांड, भेंड़, बकरी, सुअर एवं हिरन जैसे जंगली जानवरों में होता है. भारत वर्ष में भी यह बीमारी प्रायः प्रत्येक स्थान में ठंडी और गर्मी के मौसम में पशुओं में दिखाई देती है. इस बीमारी से ग्रस्त पशु ठीक होने पर भी अत्यन्त कमजोर हो जाता है. पशुओं में दूध एवं ऊन का उत्पादन बहुत कम हो जाता है और बैल काफी समय तक काम करने के योग्य नहीं रहता है. इस रोग से पीड़ित व्यस्क पशुओं में अधिक मृत्यु नहीं होती है, लेकिन अस्वस्थता प्रतिशत अधिक होने और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के कारण इस रोग का बहुत अधिक आर्थिक महत्व है.

ठंड के मौसम में पशुओं पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। क्योंकि मानव तो अपनी सुरक्षा के लिए स्वयं तत्पर रहते हैं। लेकिन, पशुधन दूसरे के द्वारा ही सुरक्षित हो पाते हैं। ऐसे में पशुपालक को अभी से फरवरी माह तक विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। सुबह-शाम की तेज सर्दी नुकसानदेह हो सकती है। पशुपालकों को अपने पशुओं के आवास निवास व बैठने की व्यवस्था, पानी की व्यवस्था, उनके खाने के लिए पौष्टिक चारा व जाने की व्यवस्था से लेकर संचित रख-रखाव का उपाय करना चाहिए। जिससे पशु धन को सर्दी से बचाया जा सके। सभी प्रकार के पशुओं की उत्पादन क्षमता और शारीरिक स्थिति को बनाए रखने के लिए सर्दियों में पोषण पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। ठंड के मौसम में पशु अपने आप को गरम करने के लिए 15 से 20 प्रतिशत अतिरिक्त ऊर्जा का उपयोग करती हैं।

मुँहपका एवं खुरपका के लक्षण, बचाव उपचार एवं टीकाकरण  – मुँहपका-खुरपका रोग (एफ एम डी) एक बहुत ही घातक तथा शीघ्रता से फैलने वाली छूतदार विषाणु जनित बीमारी है। इस बीमारी से विभक्त खुर वाले पशुओं जैसे गाय, भैंस, भेंड़, बकरी, हिरन, सूअर तथा अन्य जंगली पशु प्रभावित होते हैं। गायों और भैंसों में कई बार यह बीमारी देखने को मिलती है। इससे प्रभावित होने वाले पशुओं में अत्याधिक तेज बुखार (104-106०F) के साथ-साथ मुँह और खुरों पर छाले और घाव बन जाते हैं। रोग के असर के कारण कुछ जानवर स्थायी रूप से लंगड़े भी हो सकते हैं, जिस कारण वे खेती के कार्य में इस्तेमाल के लायक नहीं रह जाते। इसका संक्रमण होने के कारण गायों का गर्भपात भी हो सकता है और समय पर इलाज नहीं होने के कारण पशु मर भी सकते हैं। इस रोग से संक्रमित पशुओं के दूध उत्पादन में बहुत अधिक गिरावट आ जाती है। हालांकि ऐसे पशुओं का दूध उपयोग में नहीं लेना चाहिए । इस रोग से पशुधन उत्पादन में भारी कमी आती है साथ ही देश से पशु उत्पादों के निर्यात पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस बीमारी से अपने देश में प्रतिवर्ष लगभग 20 हजार करोड़ रूपये का प्रत्यक्ष नुकसान होता है। अत: इस बीमारी के रोकथाम के लिए गायों और भैंसों को वर्ष में दो बार मुंहपका खुरपका रोग का टीका अवश्य लगवाना चाहिए।

रोग के कारण

मुँहपका-खुरपका रोग एक बहुत ही छोटे आकार के वायरस द्वारा होता है, इस वायरस का नाम Aptho Virus है जो Picornaviridae फेमिली का है। विश्व में इस वायरस के 7 किस्में पायी जाती हैं (A, O, C, SAT1, SAT2, SAT3 and Asia1) तथा इनकी 14 उप किस्में शामिल हैं। हमारे देश में यह रोग मुख्यत: ओ.ए.सी. तथा एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होता है। प्रत्येक वायरस की किस्म के लिए एक स्पेसिफिक टीका की आवश्यकता होती है जिससे पशु को इस बीमारी से सुरक्षा मिल सके।

रोग के फैलने के कारण

ये रोग मुख्यत: बीमार पशु के विभिन्न स्त्राव और उत्सर्जित द्रव जैसे लार, गोबर, दूध के साथ सीधे संपर्क मे आने, दाना, पानी, घास, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से और हवा से फैलता है। इस स्त्राव में विषाणु बहुत अधिक संख्या में होते हैं और स्वस्थ जानवर के शरीर में मुँह और नाक के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं। ये रोग संक्रमित जानवरों को स्वस्थ जानवरों के एक साथ बाड़े में रखने से, एक ही बर्तन से खाना खाने और पानी पीने से, एक दूसरे का झूठा चारा खाने से फैलता हैं। ये विषाणु खुले में घास, चारा, तथा फर्श पर कई महीनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन गर्मी के मौसम में यह बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं तथा लगभग 4-5 दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं। नम-वातावरण, पशु की आंतरिक कमजोरी, पशुओं तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन तथा नजदीकी क्षेत्र में रोग का प्रकोप इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक हैं। यह रोग किसी भी उम्र की गायों एवं उनके बच्चों में हो सकता है। यह बीमारी किसी भी मौसम में हो सकती है।

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बीमारी के लक्षण

इस बीमारी में पशु को जाड़ा देकर तेज बुखार (104-106०F) होता है। पशु चारा कम खता है, दूध कम देता है, मुँह से लार बहने लगती है। बीमार पशु के मुँह में मुख्यत जीभ के उपर, होठों के अंदर, मसूड़ों पर साथ ही खुरों के बीच की जगह पर छोटे-छोटे छाले बन जाते हैं। फिर धीरे-धीरे ये छाले आपस में मिलकर बड़ा छाला बनाते हैं। समय पाकर यह छाले फूट जाते हैं और उनमें जख्म हो जाते हैं। मुँह मे छाले हो जाने की वजह से पशु जुगाली बंद कर देता है और खाना पीना छोड़ देता है, मुँह से निरंतर लार गिरती रहती है साथ ही मुँह चलाने पर चप-चप की आवाज़ भी सुनाई देती है। खुर में जख्म होने की वजह से पशु लंगड़ाकर चलता है। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन 80 प्रतिशत तक कम हो जाता है। पशु कमजोर होने लगते हैं। प्रभावित पशु स्वस्थ होने के उपरांत भी महीनों तक और कई बार जीवन पर्यन्त कमजोर ही रहते हैं, कई बार गर्भवती पशुओं में गर्भपात भी हो जाता है। बड़े पशुओं में मृत्यु संख्या 2-3 प्रतिशत होती है, बछड़े/बछियों में मृत्यु संख्या अधिक होती है।

रोग का उपचार

बीमारी होने पर पशु चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए एवं आवश्यकतानुसार एंटीबायोटिक इंजेक्शन भी लगाए जा सकते हैं। बीमार पशु को स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर दें। बीमार पशु को पूर्ण आराम दें। रोगग्रस्त घाव को कीटाणुनाशक दवाओं के घोल से धोयें। रोगग्रस्त पशु के पैर को नीम एवं पीपल के छाल को उबालकर ठंडा करके दिन में दो से तीन बार धोयें। प्रभावित पैरों को फिनाइल-युक्त पानी से दिन में दो-तीन बार धोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम का प्रयोग करें। मुँह के छाले को 1 प्रतिशत फिटकरी के पानी में घोल बना कर दिन में तीन बार धोयें। मुँह में बोरो ग्लिसरीन (850 मिली ग्लिसरीन एवं 120 ग्राम बोरेक्स) लगाएं। शहद एवं मडूआ या रागी के आटा को मिलाकर लेप बनाएँ एवं मुँह में लगाया जा सकता है। इस दौरान पशुओं को मुलायम एवं सुपाच्य भोजन दिया जाना चाहिए।

रोग से बचाव का उपाय 

मुँहपका एवं खुरपका बीमारी से पशुओं को बचाने के लिए सर्वोत्तम उपाय टीकाकरण ही है। पशुओं को इस रोग से बचाने के लिए पोलीवेलेंट वेक्सीन वर्ष में दो बार अवश्य लगवायें। बछड़े एवं बछियों को पहला टीका 4 माह की आयु में, दूसरा बूस्टर टीका 1 माह बाद एवं उसके उपरांत हर 6 माह में एफ एमडी बीमारी का टीका लगवाना चाहिए। बीमारी हो जाने पर रोग ग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर दें। बीमार पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए। बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा दें। रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदें। पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए। चूना एवं संक्रमण नाशी दवा का छिडक़ाव करवायें। संक्रमित पशुओं को मुलायम एवं सुपाच्य आहार खाने के लिए देना चाहिए। इस बीमारी से मरे पशु के शव को खुले में नहीं फेकना चाहिए, गहरा गड्ढा खोदकर जमीन में गाड़ देना चाहिए।

रोग के लक्षण

  • पशु में खुरपका-मुंहपका रोग का संक्रमण हो जाने पर पशु को 104-105 डिग्री फारेनहाइट तक तेज बुखार रहता है.
  • बीमार पशु के मुँह, मसूढ़े, जीभ, ओष्ठ के अन्दर के भाग, खुरों के बीच की जगह तथा कभी-कभी थनों व अयन पर छाले पड़ जाते हैं.
  • मुँह से लार बहने लगती है. मुँह से चपचपाहट आवाज उत्पन्न होती है.
  • पशु के जीभ तथा तलवे के छाले फटकर घाव में बदल जाते हैं.
  • कभी-कभी जीभ की सतह निकलकर बाहर आ जाती है.
  • मुँह में घाव व दर्द के कारण पशु खाना-पीना बन्द कर देते हैं, जिससे वह बहुत कमजोर हो जाता है.
  • पशु जुगाली करना बन्द कर देता है.
  • खुर में जख्म के वजह से पशु लंगड़ाकर चलता है. सावधानी नहीं बरतने से घावों में कीड़े पड़ जाते हैं.
  • दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत कम हो जाता है.
  • बैलों की कार्य क्षमता प्रभावित हो जाती है और पशु स्वस्थ्य होने पर भी महीनों हाँफते रहते हैं.
  • गर्भवती पशुओं में गर्भपात की सम्भावना बनी रहती है.
  • बीमारी से ठीक होने के पश्चात् भी पशुओं की प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है.
  • 7-8 दिनों के बाद इस बीमारी का असर थोड़ा कम होने लगता है, पशु खाना खाने लगता है.
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समय पर इलाज मिलने पर छाले और जख्म भर जाते हैं, परन्तु कभी-कभी संकर पशुओं में इस रोग से मृत्यु भी हो जाती है.

 

मुँह में बोरो ग्लिसेरीन (850मिली ग्लिसेरीन एवं 120 ग्राम बोरेक्स) लगाए। शहद एवं मडूआ या रागी के आटा को मिलाकर लेप बनाएँ एवं मुँह में लगाएँ। की परामर्श पर ज्वरनाशी एवं दर्दनाशक का प्रयोग करे एवं जिस पशु के मुँह, खुर एवं छिमी में घाव हो उसको 3 या 5 दिन तक प्रतिजैविक जैसेकि डाइक्रिस्टीसीन या ऑक्सीिटेटरासाइकलीन का सुई लगाए। खुर के घाव में हिमैक्स या नीम के तेल का प्रयोग करें जिससे की मक्खी नहीं बैठे क्योंकि मक्खी के बैठने से कीड़े होते हैं। कीड़ा लगने पर तारपीन तेल का उपयोग करें। इसके अलावा मड़ूआ या रागी एवं गेहूँ का आटा,चावल के बराबर की मात्रा को पकाकर तथा उसमें गुड़ या शहद,खनिज मिश्रण को मिलाकर पशु का नियमित दें।साथ ही साथ अपने पशुओं को प्रोटीन भी दें।

किसी एक गांव/क्षेत्र में खुरपका मुँहपका रोग प्रकोप के समय क्या करें, क्या नहीं करें ?

क्या करें,

  • निकटतम सरकारी पशुचिकित्सा अधिकारी को सूचित करें।
  • प्रभावित पशुओं के रोग का पता लगने पर तुरंत उसे अलग करें।
  • दूध निकालने के पहले आदमी को अपना हाथ एवं मुँह साबुन से धोना चाहिए तथा अपना कपड़ा बदलना चाहिए क्योंकि आदमी से बीमारी फैल सकता है।
  • बीमारी को फैलने से बचाने के लिए पूरे प्रभावित क्षेत्र को 4 प्रतिशत सोडियम कोर्बोनेट (NaCC) घोल (400 ग्राम सोडियम कार्बोनेट 10 लीटर पानी में) या 2 प्रतिशत सोडियम हाइड्राक्साइड (NaOH) से दिन में दो बार धोना चाहिए एवं इस प्रक्रिया को दस दिन तक दोहराना चाहिए।
  • स्वस्थ एवं बीमार पशु को अलग-अलग रखना चाहिए।
  • बीमार पशुओं को स्पर्श करने के बाद व्यक्ति को 4 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट घोल के साथ खुद को, जूते एवं चप्पल, कपड़े आदि धोने चाहिए।
  • समाज को यह करना चाहिए कि दूध इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल किये बर्तन एवं दूध के डिब्बे को 4 प्रतिशत सोडियम कोर्बोनेट घोल से सुबह और शाम धोने के बाद ही उन्हें गांव से अंदर या बाहर मेजना चाहिए।
  • संकमित गांव के बाहर 10 फिट चौड़ा बलीचिंग पाउडर का छिड़काव करना चाहिए।पशुचिकित्सक को चाहिए की प्रारंभिक चरण के प्रकोप में बचे पशुओं में, संक्रमित गांव/क्षेत्र के आसपास, रोग के आगे प्रसार को रोकने के लिए वृत्त टीकाकरण (टीकाकरण की शुरूआत स्वस्थ पशुओं में बाहर से अंदर की ओर) करना चाहिए तथा टीकाकरण के दौरान प्रत्येक पशु के लिए अलग-अलग सुई का प्रयोग करें तथा इस दौरान बीमार पशु को नही छुएं।टीकाकरण के 15 से 21 दिनों के बाद ही पशुओं को गांव में लाना चाहिए।
  • इस प्रकोप को शांत होने के बाद इस प्रकिया को एक महीने तक जारी रखा जाना चाहिए।

क्या नहीं करें

  • सामुहिक चराई के लिए अपने पशुओं को नहीं भेजें. अन्यथा स्वस्थ पशुओं में रोग फैल सकता है।
  • पशुओं को पानी पीने के लिए आम स्रोत जैसेकि तालाब, धाराओं, नदियों से सीधे उपयोग नहीं करना चाहिए, इससे बीमारी फैल सकती है | पीने के पानी में 2 प्रतिशत सोडियम बाइकार्बोनेट घोल मिलाना चाहिए।
  • लोगों को गांव के बाहर आने-जाने के द्वारा रोग फैल सकता है।
  • लोगों को ज्यादा इधर उधर नहीं घूमना चाहिए। वे स्वस्थ पशुओं के साथ संपर्क में नहीं जाएं तथा खेतों एवं स्थानों पर जहाँ पशुओं को रखा जाता है वहाँ जाने से उन्हें बचना चाहिए।
  • प्रभावित क्षेत्र से पशुओं की खरीदी न करें।

 उपचार एवं बचाव

  • खुरपका -मुंहपका रोग ग्रसित पशुओं का अच्छे पशु चिकित्सक से समुचित उपचार करवाना आवश्यक है.
  • रोग होने पर पशु के स्वच्छता, पैर एवं मुख की सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए.
  • एक प्रतिशत पोटाशियम-परमैगनेट घोल से प्रभावित पैरों को दिन में दो-तीन बार धोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम या नीम का तेल लगाना चाहिए. कीड़ा लगने पर तारपीन तेल का इस्तेमाल करना चाहिए.
  • मुख के छालों को 1 प्रतिशत फिटकरी के घोल बनाकर धोना चाहिए या बोरो ग्लिसरीन (850 मिली. ग्लिसरीन एवं 120 ग्राम बोरेक्स) लगायें.
  • रोग के दौरान पशु को मुलायम एवं सुपाच्य भोजन देना चाहिए.
  • पशु चिकित्सक के सलाह से दवा देना चाहिए.
  • रोग से बचाव के लिए चार माह से ऊपर के स्वस्थ सभी पशुओं को खुरपका-मुँहपका रोग के विरूद्ध टीका (FMD) लगाना चाहिए. उसके चार सप्ताह पश्चात् पशु को बुस्टर खुराक देना चाहिए और प्रत्येक 6 माह पर नियमित टीकाकरण करवाना चाहिए.
  • बीमारी को फैलने से रोकने के लिए प्रभावित जगह को 4 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट घोल से या 2 प्रतिशत सोडियम हाइड्राॅक्साइड घोल से धोना चाहिए.
  • प्रभावित क्षेत्र के आस-पास के गाँवों या इलाकों में अन्य स्वस्थ्य पशुओं का टीकाकरण करना चाहिए.
  • पशुओं को पानी पिलाने के लिए सार्वजनिक तालाब, धाराओं इत्यादि का उपयोग नहीं करना चाहिए, इससे बीमारी फैल सकती है.
  • पीने के पानी में 2 प्रतिशत सोडियम बाईकार्बोनेट घोल मिलाना चाहिए.
  • प्रभावित क्षेत्र से पशुओं की खरीदारी नहीं करनी चाहिए.
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 सर्दी में पशुओं को दें संतुलित आहार

ठंड के दौरान तापमान में अचानक गिरावट पशुओं के लिए अधिक पोषण ग्रहण करने का कारण है। सर्दियों में पशुओं को संतुलित आहार देना चाहिए। सूखे चारे के साथ-साथ हरा चारा एवं दाना मिश्रण अवश्य देना चाहिए। रात में अधिक उर्जा पैदा करने वाले तेल या तिलहन अनाज में मिलाना चाहिए। इससे पशु का शरीर गरम रहता है। इसके लिए उबली गेहूं, ज्वार बाजरा, तेल राधिका दलिया भी उपयोग में लाया जा सकता है। ठंड में पशुओं को दाना मिश्रण गरम पानी में भींगो कर देना चाहिए। गाय को प्रतिदिन 1 किलो दुग्ध उत्पादन पर 1 किलो दाना मिश्रण देना चाहिए। वहीं भैंस को 2 किलो दूध उत्पादन पर 1 किलो दाना मिश्रण देना चाहिए। सर्दियों में तुरंत बच्चा देने वाले पशुओं को अधिक ऊर्जा वाले आहार की जरूरत पड़ती है। इसके लिए उबली मकई गेहूं ज्वार तेल तिलहन अनाज आदि का दलिया बनाकर दिया जा सकता है।

दो बार पानी पिलाएं

सर्दियों में पशुओं को गुनगुना और साफ़ स्वच्छ पानी दिन में दो बार पिलाना चाहिए। सुबह 10 बजे के बाद और 5 बजे से पहले पानी पिलाने के साथ-साथ धूप निकलने पर पशुओं को धूप में रखना चाहिए। रात्रि के समय पशुओं को पशुशाला में ही रखें। संभव हो सके तो ठंड से बचाव के लिए जूट का बोरा मवेशी के शरीर पर ओढ़ा दें ताकि उसका ठंड से बचाव हो सकें।

एफएमडी टीका का करें उपयोग

इस समय एफएमडी का टीका अपने मवेशी को अवश्य करना चाहिए। यह रोग ग्रामीण क्षेत्रों में खुरहा के नाम से जाना जाता है। इसमें पशु के जीभ में छाले हो जाते हैं। नाक से पानी आता है एवं जानवर को दस्त होता है। साथ ही दुध उत्पादन में कमी आ जाती है। इतना ही नहीं थन एवं पैर में सूजन आ जाता है। बकरी में पीपीआर वैक्सीन लगाने का भी यह उपयुक्त समय है। बकरी पालकों को अपने बकरी को टीका अवश्य लगवा लें।

रोग के फैलाव रोकने हेतु सावधानियाँ

  • रोग के फैलाव रोकने हेतु प्रभावित पशुओं को स्वच्छ एवं हवादार स्थान पर रखना चाहिए तथा अन्य स्वस्थ्य पशुओं को अलग स्थान पर रखना चाहिए.
  • प्रभावित पशु के मुँह से गिरने वाले लार एवं पैरों के घाव के संसर्ग में आने वाले वस्तुओं यथा- पुआल, भूसा आदि को जला देना चाहिए या जमीन में चूना के साथ गाड़ देना चाहिए.
  • पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी हाथ-पाँव अच्छी तरह साफ करके ही अन्य पशुओं के पास जाना चाहिए.
  • इस बीमारे से मरे पशुओं के शव को खुला न छोड़कर गड्ढ़े में गाड़ देना चाहिए.

रोग का सम्पूर्ण नियंत्रण के उपाय

  • पशु के अंतर्देशीय स्थानान्तरण पर नियंत्रण रखना चाहिए.
  • पशुपालकों में जागृति एवं नियमित टीकाकरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए.
  • राज्य एवं राष्ट्र स्तर पर नियंत्रण कड़ा होना चाहिए.
  • नए पशुओं को झुण्ड या समूह में मिश्रित करने के पूर्व सिरम सेम्पल से उसकी जाँच करवानी चाहिए.
  • नए पशुओं को कम-से-कम चैदह दिनों तक अलग बाँधकर रखना चाहिए.

 Compiled  & Shared by- This paper is a compilation of groupwork provided by the

Team, LITD (Livestock Institute of Training & Development)

 Image-Courtesy-Google

 Reference-On Request

Disclaimer: This blog is vet-approved and includes original content which is compiled after thorough research and authenticity by our team of vets and content experts. It is always advisable to consult a veterinarian before you try any products, Livestock/pet food or any kind of treatment/medicines on your Livestock/pets, as each Livestock/pet is unique and will respond differently.

पशुओुं मे खुरपका-मुंहपका रोग की पहचान एवं उपचार

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