थनैला रोग

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थनैला रोग

अर्चना1’, सौरभ स्वामी2, हिमानी सिंह3 और प्रिया रंजन3
1. पीएचडी स्कॉलर, पशु लोक स्वास्थ एवं महामारी विज्ञान विभाग, बिहार वेटनरी कॉलेज पटना-14
2. पीएचडी स्कॉलर, पशु लोक स्वास्थ एवं महामारी विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान कॉलेज, जीबीपीयूएटी पंतनगर।
3. एम. वी. एससी. स्कॉलर, पशु लोक स्वास्थ एवं महामारी विज्ञान विभाग, बिहार वेटनरी कॉलेज पटना-14

दुधारू पशुओं में थनैला (मेस्टाइटिस) एक संक्रामक रोग है, जो बैक्टीरिया द्वारा फैलता है। इस रोग में स्तन ग्रंथि में सूजन और जलन होता है। यह मवेशियों में बहुत ही सामन्य बीमारी होता है। इस बीमारी की वजह से दुधारू पशुओं में दूध देने की क्षमता घट जाती है, जिससे दुग्ध उद्योग को भारी नुकसान चुकाना पड़ता है। यह भारत में मुख्यतः स्टेफाइलोकोकस बैक्टीरिया के कारण होता है। यह शारीरिक आघात तथा सूक्ष्मजीवों के संक्रमणों के कारण होता है। यह दुधारू पशुओं में ज्यादा होता है, जिससे दुग्ध उद्योग में कई हजार करोड़ रूपये का नुकसान होता है। इस बीमारी में पशु की मौत नहीं या बहुत कम होती है। लेकिन पशु के दूध देने की क्षमता आंशिक या पूरी तरह बंद हो जाती है। भैंसो की तुलना में गायों में यह रोग अधिक होता है। मेस्टाइटिस से पशुपालकों व देश को भारी नुकसान होता है।

कारणः-

यह ज्यादातर बैक्टीरिया के कारण होता है। गाय – भैंसों में ये मुख्य रूप से स्ट्रप्टोकोकस बैक्टीरिया द्वारा फैलता है। लेकिन भारत में यह रोग मुख्य रूप से स्टेफाइलोकोकस बैक्टीरिया के कारण होता है। पशुओं के रख रखाव में लापरवाही से भी यह रोग होता है। पशु बांधने की जगह पर गंदगी, गंदे हाथों से दूध निकालना, थनों पर कट, घाव, गंदगी होने से इस रोग की संभावना बढ़ जाती है। मेस्टाइटिस गाय-भैंस के अलावा बकरी, भेड़ व घोड़ी में भी पाया जाता है लेकिन गायों में सबसे अधिक पाई जाती है। गायों में भी देसी नस्ल की गायों की बजाय संकर नस्ल की गायों में मेस्टाइटिस अधिक होता है।

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लक्षणः-
इस रोग में थनों की गादी गर्म, कठोर व पीड़ादायक हो जाती है। दूध में कतरे आते हैं, गाढ़ा या पतला हो जाता है तथा दूध के रंग में भी बदलाव आ जाता है। यदि इस रोग की देखभाल प्रांरभ में नहीं हुआ तो थनों की गादी फाइब्रोसिस के कारण कठोर हो जाती है जिससे दूध बनना बंद हो जाता है और थन बेकार हो जाता है।

रोकथाम एवं उपचारः-
इस बीमारी की जांच लक्षण एंव दूध की जांच के आधार पर की जाती है। रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए। पहले स्वस्थ थनों से दूध निकालना चाहिए फिर रोग ग्रस्त थनों से दूध निकालना चाहिए। रोगग्रस्त थन से जहाँ तक संभव हो सफेद, पीला या लालियमायुक्त स्राव पूरा बाहर निकाल देना चाहिए। थन से पूरी तरह खराब दूध निकालकर दिन में एक बार एंटिबायोटिक टयुब चढ़ाना चाहिए। यदि इन्फेक्शन अधिक हो तो सुबह शाम दो बार चढ़ाना चाहिए। पूरी तरह खराब दूध के बाहर निकालने के लिए ऑक्सीटोसिन का उपयोग किया जा सकता है।
यह रोग मुख्य रूप से गंदगी के कारण फैलता है इसलिए बाड़े की पूरी सफाई करनी चाहिए। दूध दुहने में भी साफ सफाई का ध्यान रखना चाहिए दूध दोहने से पहले व बाद में एंटीसेव्टिक घोल से थनों को धोना चाहिए। थनों को चोट व घाव से बचाना चाहिए। थनैल की अशंका होने पर इलाज जल्दी शुरू कर देना चाहिए ताकि ज्यादा नुकसान न हो।

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