ग्रीष्मकाल में दुधारू पशुओं की देखभाल, येवम गर्मी से बचाव हेतु उपाय

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संकलन – डॉ जितेंद्र सिंह, पशु चिकित्सा अधिकारी, पशुपालन विभाग, उत्तर प्रदेश लखनऊ

दुधारू पशुओं की देखभाल एवं नवजात पशुओं की देखभाल का ग्रीष्मकाल में औचित्य :

बेहद गर्म मौसम में , जब वातावरण का तापमान ‍ 42-48 °c तक पहुँच जाता है और गर्म लू के थपेड़े चलने लगतें हैं तो पशु दबाव की स्थिति में आ जाते हैं। इस दबाव की स्थिति का पशुओं की पाचन प्रणाली और दूध उत्पादन क्षमता पर उल्टा प्रभाव पड़ता है। इस मौसम में नवजात पशुओं की देखभाल में अपनायी गयी तनिक सी भी असावधानी उनकी भविष्य की शारीरिक वृद्धि , स्वास्थ्य , रोग प्रतिरोधी क्षमता और उत्पादन क्षमता पर स्थायी कुप्रभाव डाल सकती है । गर्मी के मौसम में ध्यान न देने पर पशु के सूखा चारा खाने की मात्रा में १०-३० प्रतिशत और दूध उत्पादन क्षमता में १० प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। साथ ही साथ अधिक गर्मी के कारण पैदा हुए आक्सीकरण तनाव की वजह से पशुओं की बीमारियों से लड़नें की अंदरूनी क्षमता पर बुरा असर पडता है और आगे आने वाले बरसात के मौसम में वे विभिन्न बीमारियों के शिकार हो जाते हैं ।

दुधारू पशुओं की देखभाल एवं नवजात पशुओं की देखभाल का ग्रीष्मकाल में उपाय :

 सीधे तेज धूप और लू से नवजात पशुओं को बचाने के लिए नवजात पशुओं को रखे जाने वाले पशु आवास के सामने की ओर खस या जूट के बोरे का पर्दा लटका देना चाहिये ।
 नवजात बच्चे के जन्म के तुरंत बाद उसकी नाक और मुँह से सारा म्यूकस अर्थात लेझा बेझा बाहर निकाल देना चहिये । यदि बच्चे को साँस लेने में अधिक दिक्कत हो तो उसके मुँह से मुँह लगा कर श्वसन प्रक्रिया को ठीक से काम करने देने में सहायता पहुँचानी चहिये ।
 नवजात बछड़े का नाभि उपचार करने के तहत उसकी नाभिनाल को शरीर से आधा इंच छोड़ कर साफ़ धागे से कस कर बांध देना चहिये। बंधे स्थान के ठीक नीचे नाभिनाल को स्प्रिट से साफ करने के बाद नये और स्प्रिट की मदद से कीटाणु रहित किये हुए ब्लेड की मदद से काट देना चहिये । कटे हुए स्थान पर खून बहना रोकने के लिए टिंक्चर आयोडीन दवा लगा देनी चहिये ।
 नवजात बछड़े को जन्म के आधे घंटे के भीतर माँ के अयन का पहला स्राव जिसे खीस कहते हैं पिलाना बेहद जरूरी होता है । यह खीस बच्चे के भीतर बीमारियों से लड़ने की क्षमता के विकास और पहली टट्टी के निष्कासन में मदद करता है ।
 कभी यदि दुर्भाग्यवश बच्चे की माँ की जन्म देने के बाद मृत्यु हो जाती है तो कृत्रिम खीस का प्रयोग भी किया जा सकता है । इसे बनाने के लिए एक अंडे को भलीभाँति फेंटने के बाद ३०० मिलीलीटर पानी में मिला देते हैं । इस मिश्रण में १/२ छोटा चम्मच रेंडी का तेल और ६०० मिलीलीटर सम्पूर्ण दूध मिला देते हैं ।इस मिश्रण को एक दिन में ३ बार की दर से ३-४ दिनों तक
पिलाना चहिये ।
 इसके बाद यदि संभव हो तो नवजात बछड़े/ बछिया का वजन तथा नाप जोख कर लें और साथ ही यह भी ध्यान दें कि कहीं बच्चे में कोई असामान्यता तो नहीं है । इसके बाद बछड़े/ बछिया के कान में उसकी पहचान का नंबर डाल दें ।
गर्मी के बुरे असर से दुधारू पशुओं की देखभाल एवं नवजात पशुओं की देखभाल हेतु महत्वपूर्ण उपाय :
 सीधे तेज धूप और लू से पशुओं को बचाने के लिए पशुशाला के मुख्य द्वार पर खस या जूट के बोरे का पर्दा लगाना चाहिये ।
 सहन के आस पास छायादार वृक्षों की मौजूदगी पशुशाला के तापमान को कम रखने में सहायक होती है ।
 पशुओं को छायादार स्थान पर बाँधना चाहिये ।
 पर्याप्त मात्रा में साफ सुथरा ताजा पीने का पानी हमेशा उपलब्ध होना चहिये।
 पीने के पानी को छाया में रखना चाहिये
 पशुओं से दूध निकालनें के बाद उन्हें यदि संभव हो सके तो ठंडा पानी पिलाना चाहिये ।
 गर्मी में ३-४ बार पशुओं को अवश्य ताजा ठंडा पानी पिलाना चहिये ।
 भैंसों को गर्मी में ३-४ बार और गायों को कम से कम २ बार नहलाना चाहिये ।
 गाय , भैस की सहन की छत यदि एस्बेस्टस या कंक्रीट की है तो उसके ऊपर ४ -६ इंच मोटी घास फूस की तह लगा देने से पशुओं को गर्मी से काफ़ी आराम मिलाता है ।
 पशुओं को नियमित रूप से खुरैरा करना चाहिये ।
 खाने –पीने की नांद को नियमित अंतराल पर चूना कली करते रहना चाहिये ।रसोई की जूठन और बासी खाना पशुओं को कतई नहीं खिलाना चाहिये ।
 कार्बोहाइड्रेट की अधिकता वाले खाद्य पदार्थ जैसे: आटा,रोटी,चावल आदि पशुओं को नहीं खिलाना चाहिये।पशुओं के संतुलित आहार में दाना एवं चारे का अनुपात ४० और ६० का रखना चहिये ।साथ ही व्यस्क पशुओं को रोजाना ५०-६० ग्राम नमक तथा मिनरल मिक्सचर तथा छोटे बच्चों को १०-१५ ग्राम जरूर देना चहिये ।
 गर्मियों के मौसम में पैदा की गयी ज्वार में जहरीला पदर्थ हो सकता है जो पशुओं के लिए हानिकारक होता है । अतः इस मौसम में यदि बारिश नहीं हुई है तो ज्वार खिलाने के पहले खेत में २-३ बार पानी लगाने के बाद ही ज्वार चरी खिलाना चहिये ।
 पशुओं का इस मौसम में गलाघोंटू , खुरपका मुंहपका , लंगड़ी बुखार आदि बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण जरूर कराना चाहिये जिससे वे आगे आने वाली बरसात में इन बीमारियों से बचे रहें।
इन उपायों और निर्देशों को अपना कर दुधारू पशुओं की देखभाल एवं नवजात पशुओं की देखभाल उचित तरीके से की जा सकती है और गर्मी के प्रकोप और बिमारियों से बचाया जा सकता है तथा उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
गर्मियों में दुधारू पशुओं पर पडऩे वाले मुख्य दुष्प्रभाव
– पशुओं की श्वसन क्रिया में वृद्धि होना- गर्मियों में शरीर की उष्मा को निकालने के लिये पशु अपने शरीर से पानी को पसीने के रूप से वाष्पीकरण करता है। पानी को शरीर से वाष्पित करने के लिये पशु के शरीर से उष्मा लेनी पड़ती है तथा पशु पसीने को शरीर से वाष्पीत होने पर राहत महसूस करता है। गर्मियों में पशु अपनी श्वसन क्रिया को बढ़ाकर पानी की वाष्पीकरण क्रिया को बढ़ा देते है इन सबके कारण पशुओं में पानी की आवश्यकता बढ़ जाती है।
– पशु सूखा चारा खाना कम कर देते हैं- गर्मियों में जल वायुमंडलीय तापमान पशुओं के शारीरिक तापमान से अधिक हो जाता है तो पशु सूखा चारा खाना कम कर देते है क्योंकि सूखा चारा को पचाने में शरीर में उष्मा का अधिक मात्रा में निकलता है ये क्रम चारा खाना उनकी दुग्ध क्षमता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है।
– दुधारू पशुओं के दुग्ध उत्पादन में कमी होना- गर्मियों के मौसम में दुधारू पशुओं हेतु चारे की उपलब्धता व गुणवत्ता में कमी हो जाती है जिसका दुष्प्रभाव दुधारू पशुओं के दुग्ध उत्पादन की क्षमता में कमी हो जाना है।
– प्रजनन क्रिया क्षीण मंद हो जाना- इस मौसम में भैसों व संकर नस्ल गायों की प्रजनन क्षमता मंद हो जाती है तथा मदचक्र लम्बा हो जाता है एवं मद अवस्था का काल व उग्रता दोनों बढ़ जाती है। जिसके कारण पशुओं में गर्भधारण की संभावना काफी घट जाती है जो कि दुग्ध उत्पादन पर सीधा प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
– पशुओं को लू लगने का डर बना रहता है – अत्यधिक गर्मी में पशुओं को लू लगने के कारण पशु बीमार पड़ जाते हैं जिससे उनके दुग्ध उत्पादन में तो काफी कमी आती है साथ ही बीमार पशु की उचित देखभाल न होने के कारण उसकी मृत्यु तक हो जाती है जिससे पशुपालक को काफी आर्थिक हानि होती है।
पालतू पशुओं पर मौसम का प्रभाव
वैसे तो ग्रीष्मऋतु का प्रभाव लगभग सभी प्रकार के जानवरों पर देखा गया है, परंतु सबसे अधिक प्रभाव गाय, भैंसों पर तथा मुर्गियों पर होता है। यह भैंस के काले रंग, पसीने की कम ग्रंथियों तथा विशेष हार्मोन के प्रभाव के कारण होता है। जबकि मुर्गियों में पसीने वाली ग्रंथियों की अनुपस्थिति तथा अधिक शरीर तापमान (107 डिग्री फेरानाइट) के कारण होता है।
पशुओं में लू लगने के लक्षण

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 पशु गहरी सांस लेता है व हापने लगता है।
 पशु की अत्याधिक लार बहती है।
 पशु छाया ढूंढता है तथा बैठता नहीं है।
 पशु दाना, चारा नहीं खाता है तथा पानी के पास इकट्ठा हो जाता है।
 पशु को झटके आते है तथा अन्त में मृत्यु तक हो जाती है।
 पशु का शरीर छूने में गरम लगता है, तथा गुदा या मलाश्य का तापमान बढ़ जाता है।

गर्मी से बचाव हेतु उपाय

 गर्मी के दिनों में पशुगृह या पशु सार, गर्मी तनाव को कम करने का बहुत महत्वपूर्ण स्त्रोत है। पशुगृह हवादार होना चाहिए जिसमें हवा के आने-जाने का उचित प्रबंधन होना चाहिए। गर्मी से पशुओं को बचाने के लिये पेड़ की छाया उत्तम साधन है। परंतु जहां प्राकृतिक छाया उपलब्ध नहीं है, तो वहां कृत्रिम आश्रय स्थल उपलब्ध कराये जाना चाहिए। पशु गृह के छत की ऊंचाई 12 फीट या उससे अधिक होनी चाहिए।
 पंखों या फव्वारे के द्वारा पशुशाला का तापमान लगभग 15 डिग्री फेरानाइट तक कम किया जा सकता है। पशु शाला के अंदर जो पंखे प्रयोग में लायेजाते है, उनका आकार 36-48 इंच और जमीन से लगभग 5 फीट ऊंची दीवार पर 30 डिग्री एंगल पर लगाना चाहिए।
 वाष्पीकरण ठंडा विधि से पंखे, कूलिंग पेड़ और पंप द्वारा जो कि पानी को प्रसारित व प्रवाहित करके दवाब के साथ-साथ पानी की छोटी-छोटी बूंदों में बदलकर पशुओं के ऊपर छिड़कता है, जिससे गर्मी के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
 पशुशाला को कूलर लगाकर भी ठंडा किया जा सकता है। एक कूलर लगभग 20 वर्गफुट की जगह को बहुत अच्छा ठंडा कर सकता है।
 पशुशाला के आसपास यदि तालाब हो तो पशु को तालाब के अंदर नहलाने से पशु का शरीर का तापमान कम हो जाता है। तालाब बनाने पर तालाब की लंबाई 80 फीट, चौड़ाई 50 फीट तथा गहराई 4-6 फीट होना चाहिए।
गर्मी का गाय, भैंसों पर प्रभाव
 गर्मी के कारण पशु की चारा व दाना खाने की क्षमता घट जाती है।
 पशु की दुग्ध उत्पादन क्षमता घटती है।
 मादा पशु समय से गर्मी या ऋतुकाल में नहीं आती है।
 गाय, भैंसों के दूध में वसा तथा प्रोटीन की मात्रा कम हो जाती है, जिससे दूध की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
 मादा पशु की गर्भधारण क्षमता घट जाती है।
 मादा पशु बार-बार गर्मी में आती है।
 मादा में भ्रूणीय मृत्यु दर बढ़ जाती है।
 पशु का व्यवहार असामान्य हो जाता है।
 नर पशु की प्रजनन क्षमता घट जाती है।
 नर पशु से प्राप्त वीर्य में शुक्राणु मृत्यु दर अधिक पाई जाती है।
 नर व मादा पशु की परिपक्वता अवधि बढ़ जाती है।
 बच्चों की अल्प आयु में मृत्यु दर बढ़ जाती है।

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गर्मियों में पशुओं का आहार व पानी प्रबंधन

 पशुचारे में अम्ल घुलनशील रेशे की मात्रा 18-19 प्रतिशत से ज्यादा होनी चाहिए। इसके अलावा पशु आहार अवयव जैसे-यीष्ट (जो कि रेशा पचाने में सहायक है), फंगल कल्चर (उदा. ऐसपरजिलस ओराइजी और नाइसिन) जो उर्जा बढ़ाते है देना चाहिये।
 चूंकि पशु का दाना ग्रहण करने की क्षमता घट जाती है, अत: पशु के खाद्य पदार्थ में वसा, ऊर्जा बढ़ाने का अच्छा स्त्रोत है, इसकी पूर्ति के लिए पशु को तेल युक्त खाद्य पदार्थ जैसे सरसों की खली, बिनौला, सोयाबीन की खली, या अलग से तेल या घी आदि पशु को खिलाना चाहिए। पशु आहार में वसा की मात्रा लगभग 3 प्रतिशत तक पशु को खिलाये गये शुष्क पदार्थों में होती है। इसके अलावा 3-4 प्रतिशत पशु को अलग से खिलानी चाहिए। कुल मिलाकर पशु को 7-8 प्रतिशत से अधिक वसा नहीं खिलानी चाहिए।
 गर्मी के दिनों में पशु को दाने के रूप में प्रोटीन की मात्रा 18 प्रतिशत तक दुग्ध उत्पादन करने वाले पशु को खिलानी चाहिए। यह मात्रा अधिक होने पर अतिरिक्त प्रोटीन पशु केपसीने व मूत्र द्वारा बाहर निकल जाती है। पशु को कैल्शियम की पूर्ति के लिये लाईम स्टोन चूना पत्थर की मात्रा भी कैल्शियम के रूप में देना चाहिए। जिससे पशु का दुग्ध उत्पादन सामान्य रहता है।
 पशुशाला में पानी का उचित प्रबंध होना चाहिए। तथा पशु को दूध दुहने के तुरंत बाद पानी पिलाना चाहिए। गर्मी के दिनों में अन्य दिनों की अपेक्षा पानी की मांग बढ़ जाती है। जो कि शरीर द्वारा निकलने वाले पसीने के कारण या ग्रंथियों द्वारा पानी के हास के कारण होता है। इसलिए पशु को आवश्यकतानुसार पानी पिलाना चाहिए।
 पशुशाला में यदि पशुसंख्या अधिक हो तो पानी की कम से कम 2 जगह व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे पशु को पानी पीने में असुविधा न हो।
 सामान्यत: पशु को 3-5 लीटर पानी की आवश्यकता प्रति घंटे होती है। इसे पूरा करने के लिये पशु को पर्याप्त मात्रा में पानी पिलाना चाहिए।
 पानी व पानी की नांद सदैव साफ होना चाहिए। तथा पानी का तापमान 70-80 डिग्री फेरानाइट होना चाहिए, जिसको पशु अधिक पसंद करता है।
 लू से बचायें पशुओं को
 भारत गर्म जलवायु वाला देश है, लेकिन राजस्थान में विशेषकर गर्मी मौसम बहुत ही कष्ट और पीड़ादायक होता है। अप्रैल में धूल भरी आंधिया, सांय-सांय की आवाज करती गर्म लू की लपटें इस मौसम की खास विशेषता है. इससे सजीव और मूक पशु भी झुलसने से नहीं बचते यहां की गर्मी की पीड़ा पशुओं को ही अधिक सहन करनी पड़ती है,
 मौसम के प्रभाव का पशुओं की दिनचर्या से सीधा संबंध है. मौसम की विभिन्नता, इसके बदलाव की स्थिति में पशु के लिए विशेष प्रबंध करने के प्रयासों की आवश्यकता रहती है। हमारी भौगोलिक स्थिति के अनुसार मौसम में काफी विविधताएं हैं, वहीं देश के पश्चिम भाग में गर्मी काफी तेज पड़ती है। जरा सी लापरवाही से किसानों को पशुधन की क्षति हो सकती है। अधिक गर्म समय में पशु के शारीरिक तंत्र में व्यवधान आ जाता है, जिसके कारण गर्मी पशु के शरीर में इकट्ठा हो जाती है तथा सामान्य प्रक्रिया के माध्यम से वह बाहर नहीं निकलती है, जिसकी वजह से पशु को तेज बुखार आ जाता है और बेचैनी बढ़ जाती है. यही रोग पशु में लू लग जाना कहलाता है. यह रोग अधिक गर्म मौसम जब वातावरण में नमी और ठंडक की कमी आ जाती है तथा तेज गर्म हवाएं चलती हैं, पशु आवास में स्वच्छ वायु नहीं आने के कारण होता है। कम स्थान में अधिक पशु रखने तथा अधिक मेहनत करने से उत्पन्न होने वाली गर्मी से भी यह रोग होता है। गर्मी के मौसम में पशु को पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं पिलाना मुख्य कारण माना जाता है. रेगिस्तानी क्षेत्र में तेज लू व सूखी गर्मी पडऩे के कारण वहां पशुओं की ज्यादा हानि होती है।
लू के लक्षण
पशुु को लू लगने पर 106 से 108 डिग्री फेरनहाइट तेज बुुखार होता है सुस्त होकर खाना-पीना छोड़ देता है, मुंह से जीभ बाहर निकलती है तथा सही तरह से सांस लेने में कठिनाई होती है तथा मुंह के आसपास झाग आ जाता है. लू लगने पर आंख व नाक लाल हो जाती है. प्राय: पशु की नाक से खून आना प्रारंभ हो जाता है जिसे हम नक्सीर आने पर पशु के हृदय की धड़कन तेज हो जाती है और श्वास कमजोर पड़ जाती है जिससे पशु चक्कर खाकर गिर जाता है तथा बेहोशी की हालत में ही मर जाता है.

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उपचार

इस रोग से पशुओं को बचाने के लिये कुछ सावधानियां बरतनी चाहिये. पशु आवास में स्वच्छ वायु जाने एवं दूषित वायु बाहर निकलने के लिये रोशनदान होना चाहिए. तथा गर्म दिनों में पशु को दिन में नहलाना चाहिए खासतौर पर भैंसों को ठंडे पानी से नहलाना चाहिए. पशु को ठंडा पानी पर्याप्त पिलाना चाहिए। संकर नस्ल के पशु जिनको अधिक गर्मी सहन नहीं होती है उनके आवास में पंखे या कूलर लगाना चाहिए. पशुओं को इस रोग से बचाने में उसके आवास के पास लगे पेड़-पौधे बहुत सहायक होते हैं। लू लगने पर पशु के शरीर में पानी की कमी हो जाती है, इसकी पूर्ति के लिये पशु को ग्लूकोज की बोतल ड्रिप चढ़वानी चाहिए तथा बुखार को कम करने व नक्सीर के उपचार की विस्तार से जानकारी लेने व चिकित्सा के लिए तुरन्त पशु चिकित्सक से सलाह लें।

पशु आहार

गर्मी के मौसम में दुग्ध उत्पादन एवं पशु की शारीरिक क्षमता बनाये रखने की दृष्टि से पशु आहार का भी महत्वपूर्ण योगदान है. गर्मी के मौसम में पशुओं को हरे चारे की अधिक मात्रा उपलब्ध कराना चाहिए. इसके दो लाभ हैं, एक पशु अधिक चाव से स्वादिष्ट एवं पौष्टिक चारा खाकर अपनी उदरपूर्ति करता है, तथा दूसरा हरे चारे में 70-90 प्रतिशत तक पानी की मात्रा होती है, जो समय-समय पर जल की पूर्ति करता है. प्राय: गर्मी में मौसम में हरे चारे का अभाव रहता है. इसलिए पशुपालक को चाहिए कि गर्मी के मौसम में हरे चारे के लिए मार्च, अप्रैल माह में मूंग , मक्का, काऊपी, बरबटी आदि की बुवाई कर दें जिससे गर्मी के मौसम में पशुओं को हरा चारा उपलब्ध हो सके. ऐसे पशुपालन जिनके पास सिंचित भूमि नहीं है, उन्हें समय से पहले हरी घास काटकर एवं सुखाकर तैयार कर लेना चाहिए. यह घास प्रोटीन युक्त, हल्की व पौष्टिक होती है.

पानी व्यवस्था

इस मौसम में पशुओं को भूख कम लगती है और प्यास अधिक. पशुपालको पशुओं को पर्याप्त मात्रा में दिन में कम से कम तीन बार पानी पिलाना चाहिए. जिससे शरीर के तापक्रम को नियंत्रित करनेे में मदद मिलती है. इसके अलावा पशु को पानी में थोड़ी मात्रा में नमक एवं आटा मिलाकर पानी पिलाना चाहिए।

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