पशुओ को मद में ना आना

0
304

 

मद, यर्थाथ मद में ना आना संक्रमण की वजह होता है। विलिबिंत डिंबक्षरण, सिस्टिक अंडाशय जैसे दोष शामिल है। यह बांझपन विशिष्ट संक्रमण या अनिर्दिष्ट संक्रमण की वजह से होता है। अनिर्दिष्ट संक्रमण अधिकांश पशुओं में अकसर पहले से ही मौजुद होता है। यह संक्रमण संपूर्ण पशु समूह की अपेक्षा अकेले पशु को प्रभावित करता है।

जिसकी वजह से अंडाशय में सूजन, डिबंवाही नालिका में सूजन, गर्भाशय में सूजन व गर्भपात जैसी समस्या हो सकती है। इसके अलावा ट्रिकोमोनिआसिस,विब्रिओसिस, ब्रुसलोसिस, ट्यूबरक्लोसिस, एपीवेग इत्यादि रोग सम्मिलित हैं।
• प्रबंधन से संबंधित – यह सबसे प्रचलित कारण है। जिसका मुख्य कारण है सही तरह से पोषण न देना और मद को सही समय या स्थिति को ना पहचान पाना।

संक्रमित डोरी के विभिन्न वर्ग
o लक्षण
प्रत्येक वयस्क पशु प्राय: 18 से 22 दिन के अंतराल पर मद के लक्षण दर्शाता है. इन लक्षणों को देखकर पशुपालक उनके मद में होने का पता लगा सकते हैं l दुधारू पशुओं में मद के लक्षणों में मादा पशु का बार-बार रंभाना, उत्तेजित होना, मादा पशु का दूसरे पशु पर चढ़ाई करना, पशु के योनि द्वार से श्लेषयुक्त पदार्थ का निकलना जिसे डोरी या तार भी कहा जाता है , प्रमुख लक्षण हैं l इस डोरीनुमा स्त्राव को देखकर हम पशु के मद में आने का समय एवं उसकी बच्चेदानी के स्वास्थय की गुणवत्ता बता सकते हैं l

स्वस्थ पशु में ये डोरी शीशे की तरह साफ़ एवं पारदर्शी होती है, परंतु संक्रमित अवस्था में ये मटमैले रंग की हो जाती है l डोरी का मटमैलापन खून के कतरों, मवाद, दूध या दही के छिछड़ों की वजह से होता है l जिस तरह के कण डोरी में उपस्थित होंगे, डोरी उसी रंग की हो जाएगी, जोकि गर्भाशय के संक्रमण की ओर इशारा करती है l

READ MORE :  पशुओं में बांझपन के कारण :

o निदान
विभिन्न तकनीकों के माध्यम से गर्भाशय के संक्रमण का पता लगाया जा सकता है. कुछ तरीके इस प्रकार हैं-
– डोरी को खुली आँख से जाँच कर
– प्रयोगशाला मे जाँच द्वारा
– सफ़ेद साइड टेस्ट
– एंडोमेट्रियल साइटोलॉजी
-गर्भाशय की बायोप्सी
-यूटेराइन / गर्भाशय लैवाज
उपरोक्त सभी विधियों के माध्यम से गर्भाशय के संक्रमण का पता लगाया जा सकता है l तदोपरांत डोरी का कल्चर सेंसिटिविटी टैस्ट द्वारा विभिन्न प्रकार की एंटीबायोटिक् दवाओं का चयन करने में उपयोग किया जाता है l

उपचार
गर्भाशय के संक्रमण का उपचार विभिन्न पद्धतियों द्वारा किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं-
– गर्भाशय में एंटीबायोटिक दवाओं का प्रयोग
– सिस्टेमिक इंजेक्शन द्वारा
– उपरोक्त दोनों विधियों के समावेश द्वारा
– हॉर्मोन के इंजेक्शन द्वारा
– इम्मुनोमोडुलेटर दवाओं द्वारा

प्रत्येक पद्धति की अपनी सीमाएं एवं फायदे होते हैं, जिनको ध्यान में रखकर उपचार किया जाता है l आजकल सिस्टमिक इंजेक्शन विधि द्वारा गर्भाशय का इलाज प्रचलन में है l

इस विधि में पशु का उपचार कभी भी शुरू किया जा सकता है, गर्भाशय को बार-बार जाँच की वजह से बाह्या संक्रमण का खतरा कम रहता है l इस तरह के टीकाकरण के लिए कम प्रशिक्षित व्यक्ति भी डॉक्टर की सलाह पर इलाज कर सकता है l

o बचाव
गर्भाशय में संक्रमण से बचाव के लिए नियमित रूप से पशु के पृष्ठ भाग एवं गोशाला की सफाई के इलावा प्रसव के दौरान उचित रखरखाव एवं प्रबंधन पर विशेष ध्यान देना चाहिए l ऐसा न करने की स्तिथि में पशु बार-बार कृत्रिम गर्भाधान के बावजूद गाभिन नहीं हो पाते हैं और बाँझपन का शिकार हो जाते हैं l

READ MORE :  हरे चारे के लिए सहजन/ मोरिंगा की खेती कैसे करें ?

o महत्वपूर्ण सलाह
यदि पशु पालक अपने पशु में मटमैले रंग की डोरी देखे तो तुरंत अपने पशु -चिकित्सक की सलाह से संक्रमण का उपयुक्त इलाज करवाएं, ऐसा न करने की स्तिथि में पशु बार-बार कृत्रिम गर्भाधान के बावजूद गाभिन नहीं होता है, जिससे पशुपालक का समय एवं धन दोनों ही चीजों का नुकसान होता है l

 

Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON