वर्षा ऋतु में पशुओं का प्रबंधन

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 वर्षा ऋतु में पशुओं का प्रबंधन

डॉ जयंत भारद्वाज, डॉ निनाद शेंबेकर, डॉ साइंड़ला राकेश, जीवन नाथ

पशु चिकित्सा एवं पशुपालन महाविद्यालय , जबलपुर ( .प्र. ) |

वर्षा ऋतु का नाम मात्र सुनकर ही मानवों का हृदय आसमान में मंडराते काले बादल , गरजती बिजली और बरसते पानी की कल्पना से भर जाता है | यह ऋतु ग्रीष्म ऋतु से झुलसे हुए जीवों के तन व मन दोनों को ही शीतलता प्रदान करती है | यह ऋतु अपने साथ अपार प्रसन्नता लाती है , परंतु साथ में पशुपालकों के लिए कुछ समस्याएं भी लेकर आती है | आज हम जानेंगे कि वर्षा ऋतु में पशुपालक भाइयों को सामान्यतः कौन-कौन सी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है तथा उनकी रोकथाम व प्रबंधन के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं |

भारत राष्ट्र में पशुपालकों की आर्थिक स्थिति अधिक सुदृढ़ नहीं है | ऐसे में वे पशुओं के लिए उच्चतम व्यवस्थाएं कर पाने में अक्षम हैं | जब भी वर्षा ऋतु आती है , तो पशु आवास की छत से पानी टपकने की संभावना बढ़ जाती है | यह पानी जब पशुओं पर गिरता है , तो वे बेचैन होने लगते हैं | यदि आवास में पानी निकलने की समुचित व्यवस्था ना हो, तो आवास –  स्थल पर पानी भरने लगता है | ऐसी स्थिति में बकरियों के तो खुर सड़ने लगते हैं |  पशुओं में कोक्सीडायोसिस रोग की संभावना बढ़ जाती है | यदि आवास – स्थल अस्वच्छ है और साथ ही वहां बारिश का पानी भी आ रहा है , तो वहां अमोनिया गैस का उत्पादन बढ़ जाता है जिससे पशुओं को विभिन्न श्वास संबंधी समस्याएं , आंखों में जलन आदि समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है | अतः वर्षा ऋतु में पशु आवास – स्थल की साफ – सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए | साथ ही वर्षा ऋतु के पूर्व ही पशु शाला की मरम्मत करवा लेनी चाहिए |

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वर्षा ऋतु में कृमियों की जनसंख्या बढ़ जाती है | अत: वर्षा ऋतु के आगमन से पूर्व ही पशुपालक भाइयों को पशुओं को पेट के कीड़े की दवाई दे देनी चाहिए | कृमिनाशक के रूप में प्याज व लहसुन का मिश्रण भी दिया जा सकता है |

बाह्य परजीवियों की जनसंख्या भी इस ऋतु में अधिक देखने को मिलती है | यह परजीवी पशुओं का रक्त चूसते हैं और कभी-कभी तो स्थिति इतनी भयावह हो जाती है कि पशुओं की मृत्यु तक हो सकती है | बाह्य परजीवीयों जैसे जुएं , पिस्सू, चिचड़ी, किलनी इत्यादि से पशुओं में खून की कमी , दुग्ध उत्पादन में कमी , शारीरिक वृद्धि में कमी , बेचैनी , खुजली , बालों का झड़ना इत्यादि देखने को मिल सकता है | बाह्य परजीवीयों की रोकथाम हेतु पशुपालक भाइयों को प्रतिदिन अपने पशुओं की साफ -सफाई करनी चाहिए | साथ ही कीटनाशक दवाएं जैसे कि एवरमेक्टिन, डेल्टामेथ्रिन, सायपरमेथ्रिन, गेमैक्सीन चूर्ण इत्यादि का उपयोग पशु चिकित्सक की देख – रेख में किया जा सकता है | नीम की पत्तीयों को पीसकर उनका घोल भी उपयोग में लाया जा सकता है |

साफ-सफाई के अभाव में इस ऋतु में पशुओं में थनैला रोग की संभावना बढ़ जाती है | अतः पशुपालक भाइयों को पशुओं के थन तथा पिछले हिस्से की सफाई पर भी ध्यान देना चाहिए |

वर्षा ऋतु में हरा चारा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है | परंतु उसमें जल अधिक तथा रेशा कम पाया जाता है | ऐसे में पशुओं की पोषक तत्वों की आवश्यकता पूर्ण नहीं हो पाती | अतः पशुपालक भाइयों को भोजन में पोषक तत्वों का घनत्व बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए |

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यदि वर्षा का पानी पशु आहार पर गिर जाए या किसी अन्य कारण – वश पशु का दाना गीला हो जाए , तो इस ऋतु में उसमें फफूंद बहुत जल्दी लगती है | ऐसा आहार पशु के लिए संपूर्णत: हानिकारक होता है | अतः पशुपालक भाइयों को चाहिए कि वे पशु आहार को सूखे स्थान पर रखें तथा उसे गीला होने से बचाने के लिए उचित प्रबंध करें |

आवास –  स्थल के चहुँ ओर यदि लंबी झाड़ियाँ होवें, तो उन्हें काटकर दूर फेंक देवें तथा किसी भी प्रकार का कूड़ा –  कर्कट आवास – स्थल के आसपास इकट्ठा नहीं होने देना चाहिए |

इस ऋतु में फर्श गीला हो जाने से पशु के फिसलने की संभावना बनी रहती है | अत: पशुपालकों को चाहिए कि वे फर्श पर खुरदरी वस्तुएं जैसे रेत इत्यादि डाल देवें तथा फर्श को गीला होने से बचाने के लिए उचित प्रबंध करें |

वर्षा ऋतु में गलघोटू रोग , मुंहपका एवं खुरपका रोग इत्यादि रोगों की संभावना बढ़ जाती है | अत: पशुपालक भाइयों को चाहिए कि वे विभिन्न रोगों से अपने पशुओं को बचाने के लिए आवश्यक रूप से उनका टीकाकरण करवा लेवें |

उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखकर हमारे पशुपालक भाई वर्षा ऋतु में होने वाली समस्याओं से अपने पशुओं को बचा सकते हैं तथा प्रसन्नता पूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं |

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