स्वस्थ्य एवं दुधारू पशुओं के लिए हरा चारा की वैज्ञानिक उत्पादन एवं प्रबंधन

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स्वस्थ्य एवं दुधारू पशुओं के लिए हरा चारा की वैज्ञानिक उत्पादन एवं प्रबंधन

 

                                   डॉ राखी भारती, डॉ मनीष कुमार मुखर्जी

 

भारत वर्ष कृषि प्रधान देश है, जिसमें पशुपालन कृषि उत्पादन प्रक्रिया में सहभागी है। हमारा देश विश्व में दुग्ध उत्पादन में प्रथम स्थान पर है। सस्ते दुग्ध उत्पादन के लिए पशु हेतु हरे चारे की विषेश भूमिका है। हरा चारा डेयरी उद्योग की प्रमुख आधार है क्योंकि ये पशुओं के लिए सस्ते प्रोटीन व ऊर्जा के प्रमुख स्रोत है। हरे चारे से पशुओं को कैरोटीन एवं विटामिन ए की आपूर्ति होती है। खेती में उपयोग होने वाले पशुओं की कार्य क्षमता को बढ़ाने के लिए उत्तम चारे की फसलों का उत्पादन आवश्यक है क्योंकि दलहनी चारे पशुओं में आवश्यक प्रोटीन की मात्रा की पूर्ति करते हैं। जबकि और दलहनी चारे कार्बोहाइड्रेट की पूर्ति करते हैं। इसके अलावा हरे चारे से पशुओं को पर्याप्त मात्रा में विटामिन एवं खनीज तत्वों की आपूर्ति होती है।

हमारे देश में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त शुष्क पदार्थ के आधार पर हरे चारे का उत्पादन केवल 596 मिलियन टन और सूखे चारे का उत्पादन 408 मिलियन टन है इसके साथ साथ दाने की उपलब्ध मात्रा 61 मिलियन टन है। अतः 32% हरे चारे, 23% सूखे चारे और 36% दाने की देश में कमी है।आज इक्कीसवीं सदी में मांग एवं पूर्ति के इस अंतर को कम करने के लिए और खाद्यानों पर मानव व पशुओं की प्रतिस्पर्धा को खत्म करने के लिए वर्ष भर हराचारा उत्पादन विधियों के माध्यम से वैज्ञानिक खेती की आवश्यकता है। वर्ष भर हरा चारा उत्पादन करने के लिए फसल चक्र में विभिन्न फसलों का समावेश अत्यन्त आवश्यक है जिसमे दो दाल वाली फसलों में मुख्यत: रबी में बरसीम, खरीफ में लोबिया, गुवार तथा एक दाल वाली फसलों में रबी में जई, खरीफ में मक्का, ज्वार, बाजरा, मखचरी आदि है। जाड़ों में चारों की फसलों में शलगम, तिलहन में सरसों तथा बहुवर्षीय दलहनी फसलों में रिजका, राइस बीन आदि है। इनके अलावा चारे के लिए , गुणिया, दीनानाथ, अनजान आदि बहुवर्षीय घासे भी उगाई जाती है। कुछ प्रमुख फसलों की उत्पादन तकनीक के निम्नलिखित है।

                                                  खरीफ चारे की फसलेज्वार

 

प्रजातियां कटाई की संख्या के आधार पर प्रजातियों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है

                        प्रजाति  उपयुक्त क्षेत्र औसत उपज (टन/हेक्टेयर
1. एकल कटाई वाली किस्में

 

पूसा चरी-6, पूसा चरी-9

हरियाणा चरी- 117, हरियाण चरी- 260

यू॰पी॰ चरी -1

 

 

संपूर्ण भारत

उत्तरी भारत

उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र

 

 

 

34-40

34-84

34-80

 

 

 

2. बहु कटाई वाली किस्में

 

एस॰एस॰जी॰ 188

एस॰एस॰जी॰ 818

एस॰एस॰जी॰ 855

पी॰सी॰ -23, पी॰सी॰-21

 

 

संपूर्ण भारत

संपूर्ण भारत

संपूर्ण भारत

संपूर्ण भारत

 

 

120-130

120-130

120-130

100-110

 

बीज दर: – ज्वार की अगेती तथा एकल कटाई वाली प्रजातियां के लिए 34-50 कि॰ग्रा॰ बीज दर प्रति हेक्टेयर तथा बहु कटाई वाली किस्मों के लिए बीज दर 20 – 24 कि॰ग्रा॰ प्रति हेक्टेयर रखते हैं। यदि खेतों में खरपतवारों की समस्या अधिक है तो बीज दर थोड़ी और बढ़ा देते हैं।

बुआई की विधि तथा समय:– ग्रीष्म ऋतु में जल्दी चारा लेने के लिए मार्च के महीने में ज्वार की बुवाई कर देनी चाहिए। इस समय विशेषकर बहु कटाई वाली प्रजातियां की बुआई करते हैं। खरीफ की बुआई जून- अगस्त में की जाती है। बुवाई सामान्यतः छिड़काव विधि से की जाती है। लाइन में बुआई है तो 25 – 30 सेंटीमीटर की दूरी पर फसल को बोया जाता है।

खाद्य एवं उर्वरक:– सिंचित क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसल में 60-70 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन तथा 40-50 कि॰ग्रा॰ फास्फोरस देना चाहिए। बहु कटाई वाली किस्मों में 70-100 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन तथा 50-60 कि॰ग्रा॰ फाशस्फोरस देना आवश्यक है। भूमि में पोटाश और जिंक की कमी होने की स्थिती में 40 कि॰ग्रा॰ पोटाश तथा 10-20 कि॰ग्रा॰ जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुआई के समय दी जाती है। बहु कटाई वाली प्रजातियों में हर कटाई के बाद नाइट्रोजन की टॉप ड्रेसिंग करना आवश्यक है।

सिंचाई एवं निराई गुड़ाई:- ग्रीष्म ऋतु वाली फसल को तीन से पांच सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। वर्षा ऋतु वाली फसलों में प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। बुआई से पूर्व पलेवा कर खरपतवारों को निकाल देना चाहिए। यदि खरपतवारों की समस्या अधिक है तो एट्राजीन एक कि॰ग्रा॰ सक्रिय तत्व को 1000 लीटर पानी मैं घोलकर बुआई के तुरंत बाद छिड़काव करना चाहिए।

फसल चक्र:- ज्वार सामान्य बरसीम, रिजका, जई, गेहूं, चना आदि फसलों के बाद बोई जाती है। इसके अलावा लोबिया भी साथ में बोई जाती है।

कटाई:-  चारे वाली ज्वार के तने पतले तथा पत्तियाँ अधिक होनी चाहिए। इसे बुआई के 50-70 दिन बाद 50% पुष्पावस्था पर काटना आरंभ करते हैं। 60 दिन तथा बाद की कटाई 40-50 दिन के अंतर पर करते हैं। ग्रीष्म ऋतु में बढ़वार जल्दी होने से अंतराल कम हो सकता है। इन किस्मों को जमीन से तीन या चार अंगुल ऊपर से काटने पर कल्ले अच्छे निकलते हैं।

बाजरा

चारे के लिए इसे बाली आने से पूर्व ही काटकर हरी अवस्था में जानवरों को खिलाया जाता है। बाजरा आमतौर पर कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है। बाजरे में सूखा सहन करने की शक्ति ज्वार की तुलना में अधिक होती है। इसकी खेती 40-200 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है। बाजरे के लिए अधिक उपजाऊ भूमियों की भी आवश्यकता नहीं होती है।

 

प्रजाति उपयुक्त क्षेत्र  उपज (टन/हेक्टेयर
जायंट बाजरा महाराष्ट्र एवं मध्य भारत (एक कटाई) 35-45
एफ॰एम॰एच॰-3 सम्पूर्ण बाजरा क्षेत्र (बहु कटाई) 40-50

 

उन्नत प्रजातियां:-

बीज दर: बाजरे की चारा फसल के लिए बीज दर 10-12 कि॰ग्रा॰ प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए। बुआई की विधि तथा समय चारा फसल के लिए बाजरे की बुआई प्रायः छिटकांव विधि से ही की जाती है। उत्तर भारत में इसकी बुआई मार्च से अगस्त तथा दक्षिण भारत में फरवरी से नवंबर तक कर सकते हैं।

खाद्य एवं उर्वरक:-  बाजरे की अच्छी उपज के लिए खेत की तैयारी से पहले गोबर की खाद खेत में मिलानी चाहिए। इसके अतिरिक्त 50 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन, 40 कि॰ग्रा॰ फास्फोरस तथा 30 कि॰ग्रा॰ पोटाश का प्रयोग करना चाहिए। इसमें से एक तिहाई नाइट्रोजन, पूरी फॉस्फोरस पोटाश बुवाई के समय ही खेत में मिला देनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा एक या दो बार में सिंचाई के बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए।

सिंचाई एवं निराई गुड़ाई:-  ग्रीष्म ऋतु वाली फसल में तीन से पांच सिंचाईयों की आवश्यकता पड़ती है। वर्षा ऋतु की फसल में प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। भूमि तथा फसल की मांग के अनुसार उचित समय पर सिंचाई करनी चाहिए। अधिक खरपतवार होने की दशा में फसल में एट्राजीन रसायन का एक कि॰ग्रा॰ सक्रिय तत्व 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर अंकुरण से पूर्व प्रति हेक्टेयर खेत में छिड़कने से खरपतवारों का नियंत्रण होता है।

फसल चक्र:- बाजरा प्रायः बरसीम, जई, रिजका, चना, गेहूं आदि फसलों के बाद बोया जाता है। मिलवा रूप में इसे ग्वार तथा लोबिया के साथ भी बोते हैं

कटाई तथा उपज:- चारे के लिए बाजरे की अच्छी फसल से औसतन 35-54 टन प्रति हेक्टेयर हरे चारे की उपज हो जाती है। इसकी कटाई का उपयुक्त समय बुआई के 50-55 दिन बाद होता है।

रबी चारे की फसलें

जई का प्रयोग प्राचीनकाल से हरे एवं सूखे चारे के रूप में किया जाता है। इससे अच्छे गुणों वाला साइलेज भी तैयार होता है। इसकी फसल से तीन कटाईयां तक प्राप्त हो जाती है। जई की हरी पत्तियाँ प्रोटीन एवं विटामिन की धनी होती है।

प्रजाति  उपयुक्त क्षेत्र उपज (टन/हेक्टेयर)
यू॰पी॰ ओ॰-14, यू॰पी॰ ओ॰-212  संपूर्ण भारत (बहु कटाई) 40-57
जे॰एच॰ओ॰- 822  मध्यभारत 40-50

 

उन्नत प्रजातियां

बीज दर:-  70-100 कि॰ग्रा॰ बीज दर प्रति हेक्टेयर कैप्टान कवकनाशी से उपचारित कर बोना चाहिए। कम उपजाऊ वाली मृदा में बीज की मात्रा अधिक प्रयोग करनी चाहिए।

बुआई का समय एवं विधि:   जई की बुवाई अक्टूबर से फरवरी तक की जाती है वैसे बुआई शीघ्र करने पर कटाइयाँ अधिक मिलने से उपज अच्छी मिलती है। जई की बुआई छिटकांव विधि के साथ- साथ पत्तियों में सीड़ड्रिल से की जाती है।

खाद एवं उर्वरक सामान्यतया वाली फसलों के लिए 100-120 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन, 60 कि॰ग्रा॰ फास्फोरस व 30 कि॰ग्रा॰ पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग किया जाता है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा को बुवाई के समय ही दिया जाता है। नाइट्रोजन का शेष भाग दो किस्तों में फसल की बुआई के 25 दिन बाद व बाकी पहली कटाई के बाद डालते हैं।

सिंचाई:-  सिंचाइयों की संख्या बुआई के समय, मर्दा के प्रकार एवं जलवायु पर निर्भर करती है। वैसे पहली सिंचाई बुआई के 25 दिन बाद की जाती है तथा बाद वाली सिंचाइयां 15-20 दिन के अंतराल पर करते हैं।

कटाई तथा उपज:- जई की फसल की कटाई कई बार की जाती है। फसल में बाली आने से पूर्व ही फसल को काट लिया जाता है। कटइयों की संख्या मुख्य रूप से फसल की प्रजाति, बुआई का समय, मृदा उर्वरता तथा सिंचाई सुविधा पर निर्भर करती है। दूसरी कटाई पहली कटाई के 30-35 दिन पर की जाती है तथा तीसरी कटाई बीज पकने पर करते हैं। इससे चारे के साथ साथ दाना भी प्राप्त होता है। उपरोक्त तकनीकों के माध्यम से जई का 54-60 टन हरा चारा प्रति हेक्टेयर प्राप्त किया जाता है। यदि फसल प्रथम कटाई के बाद दाने के लिए छोड़ते हैं तो 25 टन हरा चारा, एक टन दाना व दो टन भूसा प्राप्त होता है।

 

बरसीम

बरसीम रबी चारे की मुख्य फसल है। इसके चारे में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है। दलहनी फसल होने के नाते यह मृदा उर्वरता में वृध्दि करती है। बरसीम से उत्तम किस्म की साइलेज भी तैयार की जाती है। आज उत्तर भारत में यह हरे चारे की प्रमुख फसल है, क्योंकि शरद ऋतु की जलवायु बरसीम के लिए सबसे उत्तम है। अत: बरसीम की अच्छी वृध्दि के लिए अर्ध शुष्क एवं ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। 150 सेंटीमीटर से कम वार्षिक वर्षा वाले स्थानों पर यह सफलतापूर्वक उगाई जाती है।

प्रजाति उपयुक्त क्षेत्र  उपज (टन/ हेक्टेयर)
 वरदान  बरसीम वाला संपूर्ण क्षेत्र 90-110
बी॰ एल॰-1,10  पंजाब हिमाचल प्रदेश और जम्मू 90-100
बुन्देल बरसीम-2  मध्य और उत्तर पश्चिमी भाग 90-105
बी॰ एल॰-22  पहाड़ी, उत्तर पश्चिम भाग 90-115

https://www.pashudhanpraharee.com/importance-of-green-fodder-in-commercial-dairy-farming/

उन्नत प्रजातियां

बीज दर:-  बरसीम के बीज के साथ कासनी के बीज भी मिले होते हैं। इनको अलग करने के लिए 5% नमक के घोल में बरसीम के बीजों को डालते है। कासनी के बीच हल्के होने के कारण घोल के ऊपर तैरने लगते हैं। अधिक उपज प्राप्त करने के लिए बरसीम के बीजों को राइजोबियम ट्राईफोलियम नामक बैक्टीरिया के कल्चर से उपचारित किया जाता है। इसके लिए कल्चर को एक लीटर पानी व 100 ग्राम गुड़ के घोल में मिला लिया जाता है। बरसीम का कल्चर उपलब्ध न होने पर बरसीम के पूर्व खेत की 5-6 सेंटीमीटर ऊपरी सतह की 5-7 कुंटल मिट्टी प्रति हेक्टेयर नए खेत में समान रूप से बिखेर देने चाहिए। बीज दर 25-30 कि॰ग्रा॰ प्रति हेक्टेयर प्रयोग की जाती है। देसी किस्म का बीज छोटा होने के कारण 25 कि॰ग्रा॰ व उन्नत किस्मों का आकार बड़ा होने के कारण 30 कि॰ग्रा॰ प्रति हेक्टेयर प्रयोग किया जाता है। प्रारंभ में अधिक उपज लेने के लिए बरसीम के बीज के साथ सरसों या लाही अथवा जई या सैंजी के बीज को भी मिलाकर बोया जाता है।

बोने के समय एवं विधि:  बरसीम की बुआई खेत में 4-7 सेंटीमीटर पानी भरने के बाद की जाती है। इस विधि में खेत में पानी भरकर पटेला द्वारा गंदल कर लिया जाता है फिर छिटकांव विधि से बुवाई कर देते हैं। बुवाई का उत्तम समय अक्टूबर माह है।

खाद एवं उर्वरक:-  बरसीम की फसल में 30 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन, 60 कि॰ग्रा॰ फास्फोरस व 30 कि॰ग्रा॰ पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। इन खातों की पूरी मात्रा अंतिम जुताई समय खेत में छिड़ककर कर मिला देना चाहिए। कुछ क्षेत्रों में बरसीम के खेतों में मोलीबेडनम व बोरोन की कमी होने पर उपज में कमी आना प्रारंभ हो जाती है। ऐसी अवस्था में इनका प्रयोग करना लाभदायक होता है।

सिंचाई एवं जल निकास: प्रारंभ में अच्छे अंकुरण एवं वृध्दि के लिए 7-10 दिन के अंतर पर हल्की हल्की दो सिंचाइयां देना लाभदायक है। बाद में मृदा एवं मौसम के अनुसार 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। प्रत्येक कटाई के पश्चात सिंचाई आवश्यक होती है। साधारणतया कुल 12-15 सिंचाईयां प्राप्त होती है।

कटाई:- बरसीम की पहली कटाई फसल की बुआई के 50-60 दिन बाद कर सकते हैं। इसके बाद 25-30 दिन के अंतर पर कटाई की जाती है। पौधों को जमीन की सतह से 5-7 सेंटीमीटर की ऊँचाई पर काटना चाहिए। बरसीम से प्रति हेक्टेयर 100-120 टन तक हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। फरवरी के बाद फसल को बीज के लिए छोड़ने पर पांच से सात क्विंटल बीज व 40 -60 टन हरा चारा प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाता है।

http://idc.icrisat.org/idc/wp-content/uploads/2019/01/Final-Green-fodder-production_Booklet.pdf

 

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