पशुपालन व्यवसाय के द्वारा महिला सशक्तिकरण

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पशुपालन व्यवसाय के द्वारा महिला सशक्तिकरण

डॉ रेखा शर्मा प्रधानाचार्य एमजीएस इंटर कॉलेज सौंख मथुरा

पशुपालन के क्षेत्र के उत्पादन में भारत में विगत दशक के दौरान उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। सकल घरेलू उत्पाद में पशुपालन का सराहनीय योगदान है। पशुपालन के क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास को अन्य पशु प्रजाती, जैसे गाय भैंस पालन के अतिरिक्त बकरी पालन भेड़ पालन एवं सूकर पालन आदि के क्षेत्र में ले जाने की आवश्यकता है जहां कम पूंजी की आवश्यकता होती है किंतु इसका पौष्टिक भोजन की उपलब्धता एवं स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। यद्यपि महिलाएं डेरी से संबंधित अधिकांश कार्य करती हैं तथा इनके योगदान को बकरी भेड़ एवं कुक्कुट पालन में अधिक बढ़ावा देने की जरूरत है।
खाद्य सुरक्षा एवं परिवारिक विकास में महिलाओं में तकनीकी कौशल का विकास करके एवं आय के साधनों में वृद्धि करके खाद्य सुरक्षा को और मजबूत किया जा सकता है। जो तकनीक विकसित की गई है वे उनकी असली जरूरतों को नजरअंदाज करती हैं। गरीब परिवारों में पशुपालन आय का एक प्रमुख स्रोत है, जो विशेषकर गरीब एवं भूमिहीन महिलाओं
को आय का साधन उपलब्ध कराता है। महिलाएं घर का सब कार्य करते हुए भी बकरी, भेड़ ,सूअर ,मुर्गी बत्तख, खरगोश पालन आदि का कार्य आसानी से कर सकती हैं। महिलाओं में निर्णय कौशल का विकास करके एवं उन्हें पशुपालन के तौर पर पहचान देकर उनके आर्थिक एवं सामाजिक विकास का रास्ता आसान किया जा सकता है। पशुपालन में नवीन तकनीकों का विकास करने की आवश्यकता है जिनकी जरूरत महिलाओं को है जो उनके कार्य के बोझ को कम करें, उत्पादकता में वृद्धि करें एवं अधिक आय का साधन मुहैया कराएं। महिलाएं पशुपालन के विभिन्न कार्यों जैसे पशुओं की देखभाल एवं खानपान, उत्पादों की बिक्री आदि में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। पशुओं के स्वामित्व विशेषकर बकरी, भेड़, मुर्गी आदि पर महिलाओं का अधिकतर अधिकार होता है। इसके विपरीत जमीन, पूंजी एवं ज्ञान के मामलों में पुरुषों का वर्चस्व होता है। अतः महिला सशक्तिकरण एक व्यवहारिक आवश्यकता है जिससे कि उनकी पहुंच तकनीकों और ज्ञान के क्षेत्र में अधिक सुगम हो सके। इसके दूरगामी प्रभाव के रूप में उनकी सामाजिक अवस्था में सकारात्मक सुधार होगा।
आर्थिक सामाजिक व्यवस्था, संस्थानिक एवं नीतिगत फैसले भी कार्यकलापों एवं जिम्मेदारियों को प्रभावित करते हैं। विभिन्न कार्यों में स्त्री पुरुष की भागीदारी एवं संसाधनों का स्वामित्व विभिन्न समाज एवं क्षेत्र में अलग अलग होता है। सामाजिक, नीतिगत एवं संस्थानिक व्यवस्थाएं अक्सर महिलाओं के उत्थान में बाधा उत्पन्न करती हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। इन बाधाओं को यदि दूर कर दिया जाए तो महिलाएं पशुपालन द्वारा आर्थिक रूप से स्वावलंबी बन सकेंगी।

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पशुपालन से स्त्री पुरुष आयाम:
पशुपालन के क्षेत्र में स्त्री एवं पुरुष की आवश्यकता एवं रूचि अलग-अलग होती है। इस क्षेत्र में वे अवसर एवं समस्याओं का निराकरण अलग अलग तरीके से करते हैं। पशु एवं पशु उत्पादों की बिक्री तकनीकी जानकारी हासिल करना, सूखा, बाढ़, बीमारियों से लड़ने के तरीके इत्यादि में स्त्री पुरुष का व्यवहार समान नहीं होता है। पशुपालन में महिला सशक्तिकरण निम्नलिखित तथ्यों पर निर्भर करता है:

पशु उत्पादन के प्रकार:

पशु उत्पादन की विभिन्न प्रणालियों में स्त्री की भागीदारी अलग-अलग होती है। पशुओं की नस्ल, कृषि पशुपालन के संबंध खानपान व्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों की गुणवत्ता एवं उपलब्धता, गोचर भूमि की उपलब्धता आदि भी पशुपालन व्यवस्था में स्त्री पुरुष के योगदान का अध्ययन करते समय हमें सामाजिक व्यवस्था रहन-सहन के तरीके विभिन्न पारिवारिक गतिविधियों मौसमी विस्थापन आदि का भी ध्यान रखना चाहिए। जिन परिवारों में महिलाएं बकरी भेड़ की देखभाल करती हैं उन्हें बच्चे भी अक्सर अपना योगदान देते हैं। छोटे स्तर पर मुर्गी पालन भी ग्रामीण महिलाओं के लिए आय, एवं रोजगार का एक महत्वपूर्ण साधन है जिससे परिवार के सदस्यों को पौष्टिक भोजन जैसे मांस और अंडे की आपूर्ति होती है।

विभिन्न पशु प्रजातियों का स्वामित्व:
महिलाओं एवं पुरुष का विभिन्न प्रजातियों के प्रति दृष्टिकोण अलग अलग होता है। जहां पुरुष प्राय: बड़े जानवरो जैसे गाय एवं भैंस को प्राथमिकता देते हैं वहीं महिलाएं छोटे जानवर जैसे बकरी, भेड़ एवं मुर्गी आदि पालना पसंद करती हैं।

पूंजी तथा तकनीकी जानकारियां:
पूंजी तथा तकनीकी ज्ञान का अभाव महिलाओं को पशुपालन में अधिक योगदान देने में बाधक होता है। प्रायः महिलाओं के बजाए पुरुषों को ही ऋण दिया जाता है क्योंकि गिरवी रखने के लिए अचल संपत्ति पुरुषों के ही नाम होती है। पशुपालन से संबंधित प्रशिक्षण अक्सर पुरुषों के लिए ही तैयार की जाती है जिनमें महिलाओं की आवश्यकताएं उनकी समय सारणी एवं उनकी सहभागिता का नितांत अभाव होता है। इसके फलस्वरूप वे पशुपालन में अपना पूर्ण योगदान नहीं दे पाती हैं। हालांकि अब पशुपालन विभाग द्वारा महिलाओं को भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है जिससे महिलाएं भी पशुपालन के क्षेत्र में अपना पूर्ण योगदान दे सकेंगी।

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पशुपालन में कार्य की जिम्मेदारी एवं श्रम का बंटवारा:
पशुपालन में स्त्री पुरुष का श्रम योगदान विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग देखा गया है। उत्तर पश्चिम भारत के राज्य जैसे हरियाणा पंजाब पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि में डेरी का अधिकांश कार्य महिलाएं ही करती हैं। बड़े पशु जैसे गाय भैंस की खरीदारी से संबंधित फैसले प्रायः पुरुष द्वारा लिए जाते हैं जबकि छोटे पशु जैसे बकरी, भेड़,मुर्गी आदि की खरीद बिक्री महिलाओं द्वारा तय की जाती है।

पशुपालन का पारिवारिक पोषण पर प्रभाव:
ग्रामीण क्षेत्रों में पशु रखने का प्रमुख कारण दुग्ध, मांस एवं आय का साधन होना है। दुधारू पशु रखने से घर के सदस्यों को पौष्टिक दूध मिलता रहता है। आवश्यकता पड़ने पर मांस के लिए बकरी और मुर्गी का उपयोग किया जाता है तथा आवश्यकतानुसार इन्हें बेच कर मिले पैसों से अन्य भोजन सामग्री आदि क्रय की जाती है।

स्वयं सहायता समूह का योगदान:
विगत वर्षों में विशेषकर महिला स्वयं सहायता समूह ने महिला सशक्तिकरण के लिए उल्लेखनीय कार्य किए हैं। समूह की ताकत एवं आपसी सहयोग की इस भावना को पशुपालन में स्त्री सहभागिता को एक नया आयाम देने में बहुत अच्छी तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे पशु क्रय करने के लिए ऋण प्राप्त करने की सुविधा होगी ज्ञान के आदान-प्रदान में सहूलियत होगी एवं विक्रय के लिए सामूहिक भागीदारी के कारण अच्छी आय हो सकेगी।
पशुपालन में महिलाओं की भागीदारी और योगदान को और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे इस क्षेत्र का तीव्र विकास हो सके। पशुपालन में महिलाओं के सशक्तिकरण द्वारा न केवल पारिवारिक पोषण को पूर्ण करने में मदद मिलेगी वरन यह रोजगार सृजन एवं स्त्री पुरुष की समान भागीदारी को सुनिश्चित करेगा एवं सामाजिक विकास में अहम योगदान देगा।

महिला सशक्तिकरण: पशुपालन के माध्यम से

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