पशुओं में अंत: परजीवी रोग, उपचार एवं रोकथाम

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पशुओं में अंत: परजीवी रोग उपचार एवं रोकथाम

 

डॉ संजय कुमार मिश्र1, एवं डॉ सर्वजीत यादव2
1.पशु चिकित्साअधिकारी चौमुंहा, मथुरा, उत्तर प्रदेश

  1. निदेशक प्रसार, दुवासु, मथुरा, उत्तर प्रदेश

अपना देश भारत दुग्ध उत्पादन में विगत कई वर्षों से विश्व में प्रथम स्थान पर है परंतु हमारे देश में प्रति पशु उत्पादकता अत्यंत न्यून है। किसी भी पशु की उत्पादकता को बनाए रखने के लिए उसका स्वस्थ होना नितांत आवश्यक है। पशुओं के स्वास्थ्य एवं उत्पादकता पर जीवाणु एवं विषाणु जनित रोगों के अतिरिक्त परजीवी जनित रोगों का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यह अंतः परजीवी पशुओं को कमजोर कर देते हैं जिससे उनकी उत्पादकता अर्थात, दुग्ध उत्पादन क्षमता एवं प्रजनन क्षमता कम हो जाती है और यदि समय रहते इनका उपचार न किया जाए तो पशुओं की मृत्यु भी हो सकती है।
अंत: परजीवी वे परजीवी हैं जो शरीर के अंदरूनी अंगों को प्रभावित करते हैं इनसे दुग्ध उत्पादन काफी हद तक कम हो जाता है एवं प्रजनन क्षमता मैं भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इनके बहुत अधिक समय तक रहने पर पशु मर भी सकता है।
अंत:परजीविओं में, सामान्यत: बीमारी फैलाने वाले प्रमुख परजीवी फेसियोला, एमफीस्टोम, मोनीजिया,
आईमेरिया, हिमॉनकस,
ट्राईकोस्ट्रांगाइलस, तथा
कूपेरिया, इत्यादि है।
अंत: क्रमी भौतिक संरचना के आधार पर दो प्रकार के होते हैं पहले चपटे व पत्ती के आकार के जिन्हें परणक्रमि, एवं फीता क्रमी कहते हैं, और दूसरे प्रकार के गोल कृमि जो बेलनाकार होते हैं।

  1. परणक्रमी:-
    यह चपटे व पत्ती के आकार के परजीवी होते हैं इसीलिए इन्हें परणक्रमी भी कहा जाता है। इस वर्ग में मुख्यत: फेसियोला पशुओं के यकृत को नष्ट करता है जबकि एमफीस्टोम, और सिस्टोंसोम पशुओं के क्रमशः ऊतकों एवं रक्त का उपयोग करते हैं, एवं उनके उत्पादन को कम करने के अतिरिक्त एनीमिया अर्थात रक्ताल्पता एवं उत्तक क्षति जैसे गंभीर रोग उत्पन्न करते हैं।
  2. फीता कृमि:-

यह परजीवी अधिकांशत: आहार नाल में पाए जाते हैं एवं पशुओं के पोषण तत्वों का उपयोग कर पशुओं को हानि पहुंचाते हैं। इन्हीं कृमियों के लारवा, पशुओं के विभिन्न अंगों में पहुंच जाते हैं और सिस्ट बनाते हैं ।

  1. गोल कृमि:-

यह परजीवी भी पशुओं के विभिन्न अंगों में पहुंचकर हानि पहुंचाते हैं। यह परजीवी पशुओं के विभिन्न रोग जैसे खून चूसने के कारण एनीमिया या रक्ताल्पता भोजन इस्तेमाल न कर पाने के कारण कमजोरी, फेफड़ों में होने के कारण न्यूमोनिया, आंखों में होने के कारण अचानक गांठ बनना, अंगों व ऊतको को नष्ट करना, आदि अवस्था उत्पन्न कर सकते हैं।

इलाज:-

१. अल्बेंडाजोल मुंह द्वारा 5 से 7.50 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम भार के हिसाब से देना चाहिए।
२. पैरेंटल टाटरेट मुंह से 2.5 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम शरीर भार की दर से देना चाहिए।
३. आईवरमेकटिन, चमड़ी या मुंह से 0.2 से 0.4 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम शरीर भार की दर से देना चाहिए ।
यहां यह बात विशेष रुप से ध्यान रखनी है उपरोक्त औषधियों का सेवन अपने नजदीकी योग्य पशु चिकित्सक के परामर्श से ही कराएं।

परजीविओं से होने वाले नुकसान से बचने के लिए यह अति आवश्यक है कि रोग उत्पन्न होने से पूर्व क्योंकि कहावत है रोग के उपचार से रोग की रोकथाम बेहतर है।

परजीवीयों से बचाव हेतु कुछ सामान्य उपाय निम्नांकित हैं:-

१. पशुओं के बाड़े की प्रतिदिन सुबह-शाम सफाई करनी चाहिए।
२. पशुओं के अंतः परजीवी संक्रमण को रोकने के लिए मध्यपोषिओं को, समाप्त करना आवश्यक है इसके लिए बेंजीन हेक्सा क्लोराइड या फिनाइल से बाड़ों की सफाई करनी चाहिए।
३. पशुओं को पेट के कीड़ों की औषधि हर तीन माह पर देनी चाहिए।
४. पशुओं को साफ सुथरा पौष्टिक और खनिज युक्त आहार देना चाहिए।
५. एक ही स्थान पर अत्याधिक पशुओं को नहीं रखना चाहिए।
६. पशुओं के बच्चों को उनकी माताओं से शीघ्र अति शीघ्र अलग कर देना चाहिए क्योंकि कम उम्र के पशुओं में संक्रमण की संभावना बहुत अधिक होती है।
७. पशुओं को निचले व गीले स्थानों जैसे तालाब आदि के पास चरने के लिए नहीं भेजना चाहिए क्योंकि इन स्थानों पर संक्रमित लारवा मिलने की संभावना अत्याधिक होती है।
८. सभी पशुओं को सर्वप्रथम पेट भर पानी पिलाएं ताकि वह तालाब का गंदा पानी ना पिए।
९. पशुओं को अच्छी तरह नहला कर साफ करें पशु के शरीर पर कीचड़ व गोबर को पूरी तरह साफ करें।

इस प्रकार उपरोक्त उपाय करने से अंतः परजीवीयों से पशुओं का बचाव हो सकता है और दुग्ध उत्पादन क्षमता एवं प्रजनन क्षमता में कमी को रोका जा सकता है।

संदर्भ: संजय कुमार मिश्र एवं सर्वजीत यादव, पशुओं में परजीवी रोग एवं उनकी रोकथाम, पशुधन प्रकाश 11 वां अंक पृष्ठ संख्या 95-97

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